भारतीयसंस्कृति परम्परा व सौलहसंस्कार

                                     

भारतीय संस्कृति में व भारतीय धर्म ग्रंथो में संस्कारों की संख्या के भिन्न-भिन्न प्रमाण प्राप्त होते हैं। सर्व प्रसिद्ध प्रमाणिक मत महर्षि मनु का प्राप्त होता है जिनके अनुसार 16 संस्कार कहे गए हैं। इन संस्कारों में कुछ जन्म से पूर्व संपादित किए जाते हैं व कुछ जन्म के बाद व एक संस्कार अंतिम संस्कार ह जो की मरण के बाद संपादित किया जाता है। जन्म से पूर्व संपादित किए जाने वाले संस्कारों में सर्वप्रथम-

 गर्भाधान संस्कार– गर्भाधान यह सर्वप्रथम संपादित किया जाने वाला संस्कार है यह संस्कार ही सभी संस्कारों में मुख्य व मूल कहा गया है । इस संस्कार के बिना अन्य संस्कार का सम्पादन संभव ही नहीं है। इसलिए गर्भाधान को भी एक संस्कार का नाम दिया गया है। गर्भाधान शब्द का अर्थ है “गर्भ:संधार्यते येन कर्मणा” अर्थात जिस कर्म अथवा संस्कार के द्वारा स्त्री पुरुष के परस्पर सहयोग से गर्भ का निर्धारण हो वह गर्भाधान कहा गया है । इस गर्भाधान को भी संस्कार का नाम देने के पीछे मुख्य कारण यह है कि इसमें समय का बहुत योगदान होता है इसलिए गर्भाधान के लिए विशेष समय अथवा मुहूर्त कह गए हैं। गर्भाधान संस्कार के संपादन हेतु विशिष्ट तिथियां वार आदि कहे गये हैं। गर्भाधान संस्कार में कुछ तिथियां निषिद्ध भी होती है जिनका शास्त्रों में उल्लेख है। गर्भाधान संस्कार में निश्चित तिथियां में अनुचित समय का त्याग नहीं करने पर उत्पन्न होने वाली संतति में विकृति दिखाई पड़ती है।

पुंसवन संस्कार– गर्भस्थ शिशु पुत्र अथवा पुत्री के रूप में ही उत्पन्न हो, वह कोई तृतीय लिंग अथवा विकृति के रूप में उत्पन्न नहीं हो इसलिए यह संस्कार संपादित किया जाता है यह गर्भधारण के तीसरे महीने में संपन्न होता है इस संस्कार की विधि है- जिसके अनुसार  गर्भिणी स्त्री के दक्षिण नाशा पुट में वटवृक्ष के रस का निपातन किया जाता है।

सीमन्तन्नोयन संस्कार– यह संस्कार गर्भधारण के आठवें मास में संपन्न होता है जिसके अंतर्गत गर्भिणी स्त्री के स्वास्थ्य लाभ व आत्मविश्वास की वृद्धि हेतु यह संस्कार सम्पादित किया जाता है।  इस संस्कार में शास्त्रीय विधि के अनुसार मंत्र उच्चारण पूर्वक पति पत्नी की सीमन्त(मांग) का उन्नयन करता है। आजकल कुछ लोग इसको गोद भराई का नाम दे देते हैं।

जातकर्म संस्कार-जन्म के पश्चात संपादित किए जाने वाले संस्कारों में सर्वप्रथम जातकर्म संस्कार है। इस संस्कार को मेधा जनन अथवा प्रज्ञा जनन संस्कार भी कहते हैं इस संस्कार में उत्पन्न शिशु के रक्त विकृति दूर करने हेतु संस्कार किए जाते हैं इसकी विधि के अंतर्गत उत्पन्न शिशु के को दसवें दिन शुद्ध शहद गौ घृत व स्वर्ण का प्राशन कराया जाता है। इस संस्कार से रक्त शुद्ध व बुद्धि की उत्पत्ति कही गई है।

नामकरण संस्कार– जन्म के बाद संपादित किए जाने वाले संस्कारों में नामकरण एक प्रमुख संस्कार है जिसके अंतर्गत उत्पन्न जातक का अथवा शिशु का कुछ ना कुछ नाम रखा जाता है। नाम भी बहुत ही सोच विचार करके रखा जाना चाहिए इसलिए इसको संस्कार का नाम दे दिया गया है।  नाम से ही जीवन भर सारे व्यवहार चलने वाले होते हैं। नाम ही व्यक्ति के कीर्ति का कारण बनता है व यश प्राप्ति का हेतु बनता है इसलिए नाम सामान्य रूप से नहीं रखा जाना चाहिए नामकरण में काफी शास्त्रीय विचार व परंपरागत तथ्यों का विचार किया जाना चाहिए। नामकरण संस्कार जन्म के 11 दिन अथवा 12 दिन संपादित किया जाता है।

निष्क्रमण संस्कार – उत्पन्न शिशु को पहली बार घर से बाहर ले जाने को निष्क्रमण संस्कार का नाम दिया गया है यह जन्म के चौथे मास में संपन्न होता है अर्थात उत्पन्न हुए शिशु को पहली बार घर से बाहर सूर्य दर्शन हेतु में चौथे महीने में निकालते हैं।

अन्नप्राशन संस्कार– जन्म के बाद पहली बार अन्न खिलाने को अन्नप्राशन संस्कार कहा गया है इस संस्कार में उत्पन्न शिशु को छठे महीने में पहली बार अन्न अथवा चावल खीर  खिलाए जाते हैं ।

मुंडन संस्कार– मुंडन संस्कार को चौलकर्म अथवा क्षुरकर्म भी कहा गया है। इस संस्कार में शिशु के केशों का कर्तन किया जाता है। शास्त्रीय प्रमाणों के अनुसार  केशों का कर्तन करना आयु का कारण कहा गया है। इसलिए यत्नपूर्वक यह संस्कार संपादित करना चाहिए इस संस्कार हेतु समय का बहुत महत्व है यह संस्कार जन्म के बाद तीसरे अथवा पांचवें  वर्ष में संपादित किया जाता है।

कर्णवेध संस्कार- शिशु के कान का छेदन करना कर्ण वेध संस्कार कहलाता है। कर्ण वेध संस्कार से हड्डी वृद्धि अंडकोष वृद्धि आदि रोग उत्पन्न नहीं होते, इसलिए कर्ण वेध संस्कार संपन्न किया जाता है। यह जन्म के पांचवें वर्ष में संपन्न होता है।

विद्यारम्भ संस्कार– वर्तमान समय में प्रथम बार बालक के विद्यालय जाने को विद्यारंभ संस्कार कहा जा सकता है।

यज्ञोपवीत संस्कार– संस्कार को जनेऊ संस्कार के नाम से भी जाना जाता है यह संस्कार विभिन्न वर्णों के अनुसार भिन्न-भिन्न आयु में संपादित किया जाता है यह वेद के अध्ययन हेतु आवश्यक संस्कार कहा गया है।

वेदारम्भ संस्कार– यह जो पवित्र संस्कार के पश्चात गुरु के समीप जाकर के नियम पूर्वक वेद के अध्ययन करने हेतु वेदारम्भ संस्कार सम्पन्न होता है।

केशान्त संस्कार/ गौदान– केशांत संस्कार में वेद के अध्ययन के पश्चात पुन घर लोटनें के बाद यह संस्कार संपन्न होता है। इस संस्कार में प्रथम बार श्मश्रु आदि का कर्तन किया जाता है। इस संस्कार में गोदान देने का विधान है।

विवाह संस्कार– ब्रह्मचर्य के पश्चात गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने हेतु यह मुख्य संस्कार कहा गया है। यह संस्कार सभी संस्कारों में प्रमुख माना गया है इस संस्कार के अनुसार धर्म ग्रंथो व श्रौतसूत्र ग्रंथों में वर्णित सप्तपदी क्रम आदि विधियों के अनुसार विवाह संपन्न करना चाहिए। आज के देवी पास आते संस्कृति के वशीभूत होकर के नृत्य करने व फोटोग्राफी को ही लोग विवाह समझने लगे हैं, जोकि संस्कृत विकृति के लक्षण है।

अन्तिम संस्कार– पाञ्च भौतिक देह के परित्याग के पश्चात किए जाने वाले अंतिम क्रिया की विधि को अंतिम संस्कार कहा गया है यह संस्कार भी वर्तमान में लुप्त प्राय सा दिखाई देता है क्योंकि अंतिम कर्म तो होता है परंतु उसमें संस्कार दिखाई नहीं पड़ता। अंतिम संस्कार की भी अपनी शास्त्रीय की विधि है जिससे विधिवत रूप से शुद्ध संपन्न होती है। 


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