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पं. स्थाणुदत्त शर्मा स्मृति पाण्डुलिपि केन्द्रं
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र की स्थापना भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद जी के करकमलो से 1956 में संस्कृत विश्वविद्यालय के नाम पर हुई, सबसे पहले संस्कृत विभागाध्यक्ष डा. गौरी शंकर जी में पाण्डुलिपि के लिए पं. स्थाणुदत्त जी को बुलवाया और कुलपति जी द्वारा नियुक्त करवाया गया। क्योंकि पं. स्थाणुदत्त जी की विद्वता के आगे उस समय शंकराचार्य जी भी नतमस्तक थे। स्थाणुदत्त जी ने पहली पाण्डुलिपि मद्रास के रेलवे स्टेशन पर अपने कानों की मुर्कियाँ बेचकर खरीदीं थी। उन्होंने गीता भवन में सबसे पहले 300 पाण्डुलिपियां इकठ्ठी की जिसनें कुछ पांडुलिपियों उनकी परम्परागत थी, कुछ लाहौर से,कुछ रोहतक से और कुछ भिक्षाराम शास्त्री जी के परिवार से प्राप्त की थी। वे लगभग 24 भाषा पढ़-लिख लेते थे, इसलिए उन्होंने संपूर्ण भारत से पांडुलिपियों का संग्रह करना शुरू कर दिया क्योंकि तत्कालीन कुलपति जी ने उनको कहा था की बनारस विश्वविद्यालय में जितनी पांडुलिपियां हैं तथा पुणे में जितनी पांडुलिपियां है उसी प्रकार दूसरा स्थान कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय का होना चाहिए। क्योंकि बनारस विश्वविद्यालय के बाद कुरुक्षेत्र संंस्कृृत विश्वविद्यालय को दूसरे स्थान पर देखने का सपना माननीय राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद जी का था। पं. स्थाणुदत्त जी नें पाण्डुलिपि की तीन योजना बनाई ! –
1. दान में लेना।
२. उपयोगिता देखकर खरीदना।
3. पाण्डुलिपि हमें दे दो जरूरत पड़ने पर वापस दे देंगे।
पंडित सस्थाणुदत्त जी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की स्थापना के आरंभ से ही पांडुलिपियों का संग्रह करना शुरू कर दिया था।तब तक स्थाणुदत्त जी ने अनेक पांडुलिपियां स्वयं की राशि से ही खरीदी ली थी । कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय ने 1972- 73 से उन्हें अनुदान राशि देना आरंभ किया जिससे उन्होनें 2086 तक 5000 पांडुलिपियां संपूर्ण तथा 2000 पांडुलिपियां अपूर्ण प्राप्त करके उस समय पुणे और बनारस को पीछे छोड़ उत्तर भारत में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय को प्रथम स्थान दिलवाया था इसलिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी ने उन्हें 1980 में पद्मश्री से सम्मानित किया था। उन्हें अन्य पुरस्कारों में शंकरचार्य सम्मान व अनेक सम्मान प्राप्त हुए ।
पं. जी ने 1986 तक काम किया। वो आठ बार विश्वविद्यालय को निवृति पत्र दे चुके थे किन्तु विश्वविद्यालय उनको छोड़ना नहीं चाहता था, वे वृद्ध हो चुके थे क्योंकि 1960 में व्याख्याता के पद से सेवानिवृत होकर वे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में आए थे।1987 में पंडित जी नें तत्कालीन कुलपति जी से आग्रह करके सेवानिवृति प्राप्त कर ली। तत्पश्चात उनके पुत्र पिनाकपाणि जो को पांडुलिपि संरक्षण के कार्य में लगा दिया किन्तु दुर्भाग्यवश अधरंग होने के कााण 28 अप्रैल 1988 को पड़ित स्थाणुदत्त जी की मृत्यु हो गई और पिनाकपाणि जी की 2001 में कैंसर के कारण मृत्यु हो गई। कुछ समय तक दिलीप सिंह जी ने पांडुलिपि विभाग को संभाला किन्तु ज्यादा समय तक सम्भाल नहीं पाये। परिणास्वरूप पाण्डुलिपि विभाग बन्द कर दिया गया। 2003 में संस्कृत विभाग के डा. सुरेन्द्र मोहन मिश्र जी ने राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन के तहत इस विभाग को खुलवाया ।उन्होंने 2004 में MRC प्रोजक्ट शुरु किया जिसमें पाण्डुलिपियों को सम्पूर्ण हरियाणा से एकत्र करना था।फिर 2011 में MCC प्रोजेक्ट शुरु किया जिसका उद्देश्य पांडुलिपियों का संरक्षण करना था। मिश्रा जी ने पांडुलिपियों के संरक्षण व संवर्धन से संबंधित व लिपि शास्त्र से संबंधित अनेक सम्मेलनों व कार्यशालाओं का आयोजन किया व संपूर्ण हरियाणा व आसपास के क्षेत्र से लगभग 10000 पांडुलिपियां लाकर संग्रहित की। 9 अगस्त 2022 तक डॉक्टर सुरेंद्र मोहन मिश्रा जी ने कार्य किया किया। 10 अगस्त 2022 से डॉ ललित कुमार गॉड जी समन्वयक रुपेण व प्रशासनिक अधिकारी डा. चेतन शर्मा जी के सानिध्य में यह कार्य राष्ट्रिय पाण्डुलिपि मिशन के तहत चल रहा है। अब भी MRC और MCC दोनों प्रोजेक्ट चल रहे है। MRC का अर्थ Manuscript Resource Centre तथा MCC का अर्थ Manuscript Cure Center है। संरक्षण के लिए हम अधिकतर आयुर्वेदिक विधियों का प्रयोग करते हैं। आवश्यकता पड़ने पर ही एलोपैथिक विधियों का प्रयोग करते हैं क्योंकि केमिकल हस्तलिखित ग्रन्थों के लिए हानिकारक है। वर्तमान में इस केंद्र की पांडुलिपियों पर 6 शोध छात्र अनुसंधान कार्य कर रहे हैं। आज भी हमारा पांडुलिपि केंद्र उत्तर भारत में प्रमुख व दूसरे स्थान पर है।
तत्कालीन निदेशक प्रोफ. एल के गौर जी व मीरा शर्मा के साथ चर्चा करके डॉ विनोद शर्मा द्वारा लिखित
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