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ज्ञान परम्परा में कालिदास के नाटक
मालविकाग्निमित्रम्
इसमें ५ अंकों में मालविका और अग्निमित्र के प्रणय और विवाह का वर्णन है। मालविका विदर्भराजपूत्र माधवसेन की बहिन है। दायादों द्वारा राज्य अपहृत होने पर अमात्य सुमति मालविका को सुरक्षित रखने के लिए छिपा कर लाता है। वन में डाकुओं के द्वारा सुमति की हत्या कर दी जाती है और मालविका राजा अग्निमित्र की महारानी धारिणी के भाई वीरसेने को प्राप्त हुई। तदनन्तर
मालविका दासी के रूप में धारिणी के पास रहती है और राजा अग्निमित्र उस पर अनुरक्त हो जाता है।
अंकानुसार कथा इस प्रकार है–
(अंक १) मालविका राजा अग्निमित्र की रानी धारिणी की सेविका है। धारिणी मालविका को संगीत-नृत्य आदि सिखाने के लिए नाट्याचार्य गणदास को शिक्षक नियुक्त करती है। धारिणी प्रयत्न करती है कि राजा मालविका के रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध न हो जाए, अतः वह उसे छिपाकर रखती है। एक चित्र में राजा मालविका को देख लेता है और
उस पर मुग्ध हो जाता है। विदूषक मालविका को अग्निमित्र के सामने लाने की योजना बनाता है। तदनुसार नाट्याचार्य गणदास और हरदत्त में योग्यताविषयक विवाद होता है। निर्णय होता है कि भगवती कौशिकी (एक संन्यासिनी) की अध्यक्षता में दोनों नाट्याचार्य अपनी शिष्याओं के द्वारा अभिनय-कलाप्रदर्शन करावें। धारिणी इस प्रदर्शन को रोकना चाहती है, परन्तु असफल रहती है।
(अंक २) मालविका की नाट्यकला का प्रदर्शन होता है। गणदास विजयी घोषित होते हैं। राजा मालविका पर मन्त्रमुग्ध होते हैं और उसे विषबुझा हुआ काम का बाण कहते हैं । विदूषक से उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने को कहते हैं।
(अंक ३) अग्निमित्र और मालविका का अनुराग प्रकट हो जाता है। छोटी रानी इरावती के आदेशानुसार राजा प्रमदवन जाते हैं। पैर में चोट के सारण रानी धारिणी अशोक की दोहद-पूर्ति( गर्भकाल में होने वाली इच्छाएं) के लिए नहीं जाती है और वह अपने स्थान पर मालविका को एतदर्थ भेजती है। राजा और मालविका का मिलन : होता है। इरावती आकर विघ्न डालती है और राजा को बुरा-भला कहती है।
(अंक ४) क्रुद्ध होकर रानी धारिणी मालविका और उसकी सखी बकुलावलिका को जेल में डाल देती है। विदूषक साँप से काटे जाने का बहाना बनाकर धारिणी की सर्प-मुद्रायुक्त अँगूठी प्राप्त करता है और उसे दिखाकर मालविका और उसकी सखी को मुक्त कराता है।
(अंक ५) इस अंक में विदर्भ देश से आई हुई दो सेविकाओं से मालविका का परिचय प्राप्त होता है। पूरा विवरण ज्ञात होने पर रानी धारिणी की अनुमति से राजा अग्निमित्र और मालविका का विवाह हो जाता है।
विक्रमोर्वशीयम् –
यह कालिदास का द्वितीय नाटक है। यह ५ अंकों में ‘त्रोटक’ नामक रूपक है। इसमें राजा पुरूरवा (विक्रम) और उर्वशी नामक अप्सरा की प्रणयकथा वर्णित है। अंक के अनुसार कथा निम्न प्रकार से हैं-
(अंक १) राजा पुरूरवा केशी राक्षस से संत्रस्त उर्वशी का उद्धार करता है। उर्वशी के सौन्दर्य और राजा के पराक्रम के कारण वे दोनों एक दूसरे पर मुग्ध हैं।
(अंक २) उर्वशी को राजा के प्रेम का पता लगता है। उर्वशी का एक प्रेमपत्र विदूषक की त्रुटि से देवी औशीनरी को मिल जाता है और वह राजा को डाँटती है। राजा अनुनय करके उसका क्रोध शान्त करता है ।
(अंक ३) भरतमुनि द्वारा निर्देशित एक नाटक में उर्वशी ‘पुरुषोत्तम विष्णु’ के नाम के स्थान पर ‘पुरूरवा’ का नाम ले लेती है। इस पर क्रुद्ध होकर भरतमुनि ने शाप दिया कि पुत्र-दर्शन तक वह मर्त्यलोक में रहे। उर्वशी राजा के पास रहती है।
(अंक ४) राजा एक विद्याधर-कुमारी को देखकर मुग्ध होता है। इस पर क्रुद्ध होकर उर्वशी कातिर्केय के गन्धमादन उपवन में चली जाती है। कार्तिकेय का नियम था कि जो स्त्री इस उपवन में आएगी, वह लता हो जाएगी। उर्वशी भी लता के रूप में परिवर्तित हो जाती है। राजा अत्यन्त शोक करता है। आकाशवाणी होती है कि संगमनीय मणि को लेकर लतारूपी उर्वशी का आलिंगन करने पर वह अपने पूर्व रूप को प्राप्त हो जाएगी। ऐसा करके राजा लता को पुनः उर्वशी के रूप में परिवर्तित कर लेता है।
(अंक ५) एक गिद्ध उस मणि को चुरा लेता है । एक अज्ञात व्यक्ति के बाण से वह गिद्ध मारा जाता है। उस बाण पर ‘पुरूरवा का पुत्र आयुष्’ लिखा है। उर्वशी ने अपने पुत्र को जान बूझकर च्यवन ऋषि के आश्रम में छिपा रखा था। पुत्र-दर्शन होते ही उर्वशी को पुनः स्वर्ग जाने के आदेश से वह बहुत दुःखित है। इसी समय नारद इन्द्रलोक से आते हैं और सूचित करते हैं कि इन्द्र को युद्ध में पुरूरवा की सहायता अपेक्षित है, अतः इन्द्र ने कृपा की है कि उर्वशी अब सदा पुरूरवा के पास ही रहेगी।
अभिज्ञानशाकुंतलम्
यह कालिदास का सुप्रसिद्ध नाटक है। इसमें ७ अंकों में दुष्यन्त और शकुन्तला के प्रेम, वियोग और पुनर्मिलन का वर्णन है। अंक अनुसार कथा निम्न प्रकार से है–
(अंक १) मृग का पीछा करते हुए राजा दुष्यन्त कण्व ऋषि के आश्रम में प्रवेश करके शकुन्तला का दर्शन करता है। भ्रमर से शकुन्तला की रक्षा करता है। राजा शकुन्तला पर अनुरक्त होता है । शकुन्तला का परिचय प्राप्त होता है कि वह विश्वामित्र और मेनका की पुत्री है तथा कण्व द्वारा पालित-पोषित है। शकुन्तला राजा के गुणों व अलौकिक सौंदर्य पर मुग्ध है।
(अंक २) राजा शकुन्तला पर अपने प्रेम की सूचना विदूषक को देता है, व किसी भी बहाने से आश्रम में जाने की योजना बनाता है।
(अंक ३) शकुन्तला दुष्यन्त के प्रति आसक्ति के कारण अस्वस्थ है। वह एक प्रेम-पत्र लिखती है। राजा प्रकट होकर उससे गान्धर्व-विवाह करता है ।
(अंक ४)गंधर्व विवाह के बाद जब बहुत दिनों तक दुष्यंत नहीं आता है तब शकुंतला दुखी रहती है व आतिथ्य न करने पर दुर्वासा ऋषि शकुन्तला को शाप देते हैं कि अवसर आने पर तुम्हारा पति तुम्हें नहीं पहचानेगा। अनसूया की प्रार्थना पर दुर्वासा आश्वासन देते हैं कि अँगूठी दिखाने पर शाप निवृत्त होगा। कण्व ऋषि सोमतीर्थ की यात्रा से लौटते हैं। उन्हें छन्दोमयी आकाशवाणी से शकुन्तला और दुष्यन्त के गान्धर्व-विवाह और शकुन्तला के गर्भवती होने का समाचार मिलता है। ऋषि दो शिष्यों व गौतमी के साथ शकुन्तला को राजा के पास भेजते हैं। शकुन्तला वृक्षों, लताओं, पशु-पक्षियों, मृग-शिशु, सखियों और पिता से विदाई लेकर हस्तिनापुर के लिए चल पड़ती है।
(अंक ५) शकुन्तला राजा दुष्यन्त के राजद्वार में पहुँचती है और राजा दुर्वासा के शाप के कारण बहुत याद दिलाने पर भी राजा शकुन्तला को नहीं पहचानता है। रोती हुई शकुन्तला को एक अप्सरा उठा ले जाती है।
(अंक ६) शचीतीर्थ में शकुन्तला की गिरी हुई अँगूठी एक मछुवारे को एक मछली के पेट में मिली। उस अंगूठी पर राजा का नाम लिखा होने के कारण वह राज दरबार में पहुंच जाती है। उस अंगूठी के मिलते ही राजा को शकुन्तला के विवाह की सारी बातें स्मरण हो आईं। राजा शकुंतला का एक चित्र बनवाता है ।राजा दिन-रात दुःखित रहने लगा। सभी प्रसन्नता के आयोजन समाप्त कर दिए गए। इन्द्र का सारथि मातलि आकर राजा को सन्देश सुनाता है कि इन्द्र ने राक्षसों के वधार्थ आपको बुलाया है। राजा स्वर्ग के लिए प्रस्थान करता हैं।
(अंक ७) राजा देवासुर संग्राम में विजय प्राप्त करता है। स्वर्ग से लौटते समय मारीच ऋषि के आश्रम में शकुन्तला और पुत्र सर्वदमन से राजा
का मिलन होता है। मारीच ऋषि दोनों को आशीर्वाद देते हैं। इन्द्र’ के रथ पर दोनों हस्तिनापुर पहुँचते हैं।
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