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छन्द-परिचय
छन्दपरिचय-
“नियतवर्णयुक्तं नियतमात्रायुक्तं वा वाक्यनिकरं वा छन्द इति उच्यते” ।
“यदक्षरपरिमाणं तच्छन्द:”
अर्थात निश्चित वर्णों का समूह है वह निश्चित मात्राओं का समूह है अथवा निश्चित वाक्यों का समूह छंद कहलाता है अथवा जहां पर अक्षरों का परिमाण तय हो वह छंद कहलाता है पद रचनाओं में वाक्यों को पद्य अथवा श्लोकों में बांधने के लिए छन्दों का प्रयोग किया जाता है।
वेद पुरुष के 6 अंगों में छंद को भी एक अंग माना गया है छन्द वे पुरुष का चरण स्थानीय अंग है-
“छन्दपादौ तु वेदस्य” ।
छंद शास्त्र के प्रणेता पिंगल मुनि है, इनका ग्रंथ छन्दशास्त्रं अथवा छंद :सूत्रम् है।
छन्द शास्त्र से सम्बन्धित अन्य प्रमुखग्रन्थ-
छन्दोमञ्जरी- गंगादास
छन्दोऽनुशासनम्- हेमचन्द्र:
वृत्तरलाकरः -केदारभट्ट
वाणीभूषणम् -दामोदरमिश्र
श्रुतबोधः- कालिदास
क्षेमेन्द्र:-सुवृत्ततिलकम्
छन्द मुख्य रूप से दो प्रकार के हैं-
1 वैदिक छन्द व 2 लौकिक छन्द।
वैदिकछन्द-
वेद में छन्द निर्णय अक्षरों के आधार पर किया जाता है वैदिक शब्दों में गायत्री ,उष्णिक,अनुष्टुप ,बृहती ,पंक्ति ,त्रिष्टुप्, जगती प्रमुख छंद है। वैदिक छंदों में अक्षर परिमाण निम्न प्रकार से है-
गायत्री -24
उष्णिक-28
अनुष्टुप -32
बृहती -36
पंक्ति -40
त्रिष्टुप्-44
जगती-48
लौकिक छन्द दो प्रकार के होते है-
1 मात्रिक छन्द व 2 वार्णिक छन्द (वृत्त)
मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गणना के आधार पर छन्द का निर्धारण किया जाता है।जैसे आर्या ।
जबकि वार्णिक छन्दों में वर्णों के आधार पर छन्द का निर्धारण किया जाता है।जैसे इन्द्रवज्रा।
वार्णिक छन्द के तीन भेद होते हैं- समवृत ,अर्धसमवृत, विषमवृत ।
1 समवृत्त-यहाँ श्लोक के चारों पदों में वर्गों की संख्या बराबर होती है। जैसे-इन्द्रवज्रा आदि
2 अर्धसमवृत्त छन्द-यहाँ श्लोक के प्रथम एवं तृतीय पाद तथा द्वितीय एवं चतुर्थ पाद में वर्णों की संख्या बराबर होती ह।जैसे-वियोगिनी आदि।
3 विषमवृत्त छन्द-यहाँ श्लोक के प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या भिन्न होती है। जैसे-गाथा इत्यादि।
छंद के निर्धारण हेतु कुछ पारिभाषिक शब्दों को जानना अत्यावश्यक है जो कि निम्न प्रकार है-
पद्य- पद्य शब्द का प्रयोग श्लोक के लिए होता है। पद्य में चार पाद होना आवश्यक है।
पाद- ” ज्ञेय: पादश्चतुर्थांश:’–अर्थात् छन्द का चतुर्थ भाग पाद कहा जाता है, इसे चरण भी कहते हैं।
वर्ण-स्वर अथवा स्वरयुक्त व्यञ्जन को वर्ण कहा जाता है।
लघु-” ह्रस्वं लघु :”। ह्रस्व को लघु कहते हैं । ह्रस्व वर्ण की एक मात्रा गिनी जाती है। अ, इ, उ, ऋ, ल ये पाँच ह्रस्व स्वर हैं। किसी व्यञ्जन में इनकी मात्रा रहने पर भी वह लघु वर्ण ही गिना जायेगा। छन्दःशास्त्र में लघु को संक्षिप्त नाम ‘ल’ से जानते है। लघु के लिए । चिह्न प्रयोग में आता है।
गुरु- “दीर्घं गुरु:”एक से अधिक मात्रा वाले वर्ण को गुरु कहा जाता है। आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, से ओ, औ ये सभी दीर्घ स्वर कहे जाते हैं। दीर्घ स्वरों से युक्त वर्ण दीर्घ माने जाते हैं । अनुस्वार युक्त व विसर्गयुक्त व संयुक्त वर्ण का पूर्व का वर्ण भी दीर्घ माना जाता है
यथा-
संयुक्ताद्य दीर्घ सानुस्वारं विसर्गसंमिश्रम् ।
विज्ञेयमक्षरं गुरु पादान्तस्थं विकल्पेन ॥
गुरु को ” ग” नाम से व “ऽ “चिह्न से जाना जाता है
गण-वर्णों या मात्राओं का समूह गण कहा जाता ह। गण तीन वर्णों का समूह होता है। वर्ण छन्दों के लक्षण समझने के लिए आवश्यक है। तीन वर्णों का समूह में एक गण बनता ह । इन गणों की संख्या आठ है।
1. यगण
2. मगण
3. तगण
4. रगण
5. जगण
6. भगण
7. नगण
8.सगण
10
गणों के स्वरूप को याद रखने के लिए यह एक सूत्र है –
यमाताराजभानसलगम्।
यगण को जानने के लिए य से आगे दो अक्षर माता’ को मिलाकर ‘यमाता’ स्वरूप बन गया। यदि तगण को जानना चाहें तो ‘ताराज’ । तगण का स्वरूप बन जाता है। सम्पूर्ण सूत्र के इस प्रकार विभाग कर लें
यगण यमाता |55
मगण मातारा 555
तगण-ताराज ऽऽ।
रगण राजभा SIS
जगण=जभान 151
भगण=भानस 5।।
नगण =नसल ।।।
सगण= सलगम् Ils
सूत्र में ल का अर्थ है= लघु ।’ गम् का गुरु ‘5’
विभिन्न गणों के स्वरूप को समझने के लिए यह प्रसिद्ध श्लोक हैं-
मस्त्रिगुरूस्त्रिलघुश्च नकारो भादिगुरुः पुनरादिलघुर्यः ।
जो गुरुमध्यगतो रलमध्यः सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुस्तः॥
मस्त्रिगुरु:-मगण तीनों गुरु 555
नकार: त्रिलघु:-नगण तीनों लघु ill
भादिगुरु: भगण आदि में गुरु = 5।। .
आदिलघुर्यः :=यगण आदि में लघु ISS
जो गुरुमध्यगतः=जगण मध्य में गुरु 151
रलमध्य:=रगण मध्य में लघु S15
सोऽन्तगुरु: सगण अन्त में गुरु ।।5
अन्तलघुस्तः-तगण अन्त में लघु 551
यति:- यतिर्विराम:। छन्दों का गान किया जाता है,व गान में माधुर्य लाने के लिए छन्द में मध्य में विराम दिया जाता है इसे ही यति करते हैं।
छन्द शास्त्र में पद्य के निर्माण के लिए संख्याओं को अक्षरों में व्यक्त किया गया है अर्थात् अक्षरों से ही संख्या का बोध होता है इसलिए कुछ अक्षरों से बनने वाली संख्या का ज्ञान कर लेना आवश्यक है ।अक्षरों से बनने वाली संख्याएं निम्न प्रकार है-
पृथ्वी, चंद्रमा =1
पक्ष ,नेत्र=2
गुण ,अग्नि ,राम =3
वेद, वर्ण ,सागर ,आश्रम =4
शर ,बाण, तत्व ,इंद्रिय=5
रस, रितु=6
अश्व ,स्वर ,लोक =7
वसु ,भोग =8
अंक ,ग्रह =9
दिशा,अवतार=10
रूद्र ,शिव =11
सूर्य ,मास=12
“मात्रिकछन्द”
आर्या –
(आर्य मात्रिक छन्द है इसे जाति भी कहते हैं।)
लक्षणम्-
यस्या: पादे प्रथमे द्वादशमात्रास्तथा तृतीयेऽपि।
अष्टादश द्वितीये चतुर्थके पञ्चदश साऽऽर्या।।
जिसके प्रथम तथा तृतीय चरण में 12, 12 मात्राएँ होती हैं, द्वितीय में 18 तथा चतुर्थ चरण में 15 मात्राएँ होती हैं, वह आर्या छन्द है।
उदाहरणम्
दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।
यो न ददाति न भुड्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति।।
“वार्णिकछन्द”
अनुष्टुप्
लक्षणम्
श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम्।
द्विचतुष्पादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः।।
अनुष्टुप् छन्द के प्रत्येक चरण में छठा अक्षर गुरु तथा पाँचवाँ अक्षर लघु होता है। दूसरे और चौथे पाद में सातवाँ अक्षर लघु होता है। पहले और तीसरे पाद में सातवाँ गुरु होता है।
उदाहरण-
माता शत्रु: पिता वैरि: येन बालो न पाठित:।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव, किमकुर्वत सञ्जय ।।
इन्द्रवज्रा-
(पाद में 11 वर्ण) इन्द्रवज्रा 11 अक्षरों का छन्द ह)
लक्षणम्
“स्यादिन्द्रवज्रायदि तौ जगौ गः”
तौ-तगण, तगण
जगौ-जगण और गुरु,
ग:-गुरु
मिलाकर तगण तगण जगण गुरु गुरु, होने पर इन्द्रवज्रा छन्द होता है।
उपेन्द्रवज्रा-
(वर्ण=11)
लक्षणम्-“उपेन्द्रवज्रा जतजास्ततो गौ”
जतजा:= जगण तगण जगण,
गौ= 2 गुरु,
(कुल 11 वर्ण होते हैं । )
उदाहरण
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव।।
उपजाति:
(वर्ण=11)
( समान वर्णों वाले दो छन्दों के चरणों का किसी छन्द में संकर (मेल) होने पर वह उपजाति कहा जाता है।)
लक्षणम्-
अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ,
पादौ यदीयावुपजातयस्ताः ।
इत्थं किलान्यास्वपि मिश्रितासु,
वदन्ति जातिष्विदमेव नाम।।
ऊपर कहे हुए दोनों छन्द अर्थात इंद्रवज्रा व उपेन्द्रवज्रा के लक्षणों से युक्त जो छन्द होता है वह उपजाति कहलाता है।
उदाहरण-
अनन्त शास्त्रं बहुलाश्च विद्या:
स्वल्पश्च कालो बहुविघ्नता च।
यत्सारभूतं तदुपासनीयं
हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्।।
वंशस्थ
(वर्ण=12)
लक्षणम् “जतौ तु वंशस्थमुदीरितं जरौ।”
जतौ =जगण तथा तगण,
जरौ=जगण और रगण,
उदाहरणम्
श्रियः कुरुणामधिपस्य पालिनीं
प्रजासु वृत्तिं यमयुक्त वेदितुम्।
स वर्णिलिङ्गी विदित: समाययौ
युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचरः।।
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