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“छात्रजीवन एवं गीतादर्शन”
डॉ. विनोद कुमार शर्मा
सहायकाचार्य, संस्कृत एवं प्राच्य विद्या
संस्थान कुरुक्षेत्र वि० वि० हरियाणा, भारत।
महात्मा गान्धी संस्थान , मॉरिशस द्वारा प्रकाशित वसंत पत्रिका में प्रकाशित पत्र
शोधपत्र सारांश :-
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में किं कर्तव्यमूढ अर्जुन को भगवान् श्री कृष्ण के द्वारा दिये गये उपदेश समस्त मानवजाति के कल्याण का अमोघ मार्ग बन गये है। श्रीमद्भगवद्गीता के ये उपदेश अर्जुन की भांति मोह, विषाद, द्वन्द्व व भ्रम से ग्रसित मानव मात्र को कर्तव्य- अकर्तव्य का शास्त्रीय मार्ग प्रशस्त करते है। महाभारत की युद्धभूमि में मोह से ग्रसित अर्जुन श्री कृष्ण से कहते हैं कि धर्म के विषय में मैं मूर्खबुद्धि वाला हो रहा हूं, अतः आप कृपा करके जिस मार्ग, उपाय अथवा धर्मपालन के पालन से मेरा कल्याण सम्भव हो वह मार्ग आप मुझे बतलाइये। इसी आकांक्षा के उत्तर के क्रम में श्रीकृष्ण के द्वारा बताया गया मार्ग वर्तमान समय में छात्रों के लिये भी उतना ही उपयोगी व कल्याणकारी है जितना कि अर्जुन के लिये था। आज आधुनिकता की चकाचौंध में अनेक छात्र जीवन मूल्यों, संस्कृति व शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यो को बहुत पीछे छोड़कर तनाव, द्वन्द्व व मोह की अवस्था में पहुँच चुके हैं, इस स्थिति श्रीमद्भगवद्गीता उनके जीवन को पुनः व्यवस्थित करते हुये आनन्दमय बना सकती है। इस शोध पत्र में श्रीमद्भगवद्गीता में के विभिन्न अध्यायों में यत्र-तत्र कहे गये सिद्धान्तों व नियमों का उल्लेख किया गया है, जिनके नियमित परिपालन से छात्रजीवन को उन्नत बनाया जा सकता है।
मुख्यशब्द/कूटशब्द – युक्तयोग, युक्ताहार, युक्तस्वप्नावबोध, ब्रह्मचर्य, कर्त्तव्य आदि।
जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का प्रथम स्तर छात्रावस्था ही है। जीवन के अनेक पड़ावों में मनुष्य को संघर्ष करते हुये आगे बढ़ना होता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास अथवा युवावस्था, प्रौढ़ावस्था व वृद्धावस्था के स्तर पर भी मानव को संघर्ष करना होता है इसलिये छात्र जीवन से ही यदि उपयुक्त अभ्यास व नियमित अनुशासन रहा हो तो मनुष्य सम्पूर्ण जीवन को सुखपूर्वक जीते हुए आनन्द से समय व्यतीत करता है। भारतीय संस्कृति की परम्पराओं, धर्मग्रन्थों, नीतिग्रन्थों व रामायण-महाभारतादि विभिन्न शास्त्रों में छात्रजीवन को अनु-
शासित व परिपक्व बनाने हेतु विद्याभ्यास के साथ अनेक पालनीय व अनिवार्य नियमों का उल्लेख किया गया है। इसी क्रम में श्रीमद्भगवद्गीता भी ऐसा ही ग्रन्थ है जिसमें बिना किसी देश, धर्म, पंथ, जाति के भेदभाव के जीवन को आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनाते हुये आनन्दयुक्त बनाने का सरल मार्ग प्रशस्त किया गया है।
छात्रों द्वारा प्रथमतः पालनीय नियम “ब्रह्मचर्य” :-
विद्याध्ययन की गुरुकुल परम्पराओं में छात्रों हेतु अनिवार्य नियम, ब्रह्मचर्य रहा है। ब्रह्मचर्य के बिना जीवन की अन्य अवस्थाओं का दुखयुक्त होना निश्चित है, इसलिये श्रौतसूत्रों व धर्मग्रन्थों में ब्रह्मचर्य को प्रथम आश्रम माना गया है। मानव जीवन के प्रमुख उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु ही ब्रह्मचर्य की अवधारणा स्थापित है। भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते है..
“यदिच्छन्तोब्रह्मचर्यं चरन्ति ।
तत्ते पद संग्रहेण प्रवक्ष्ये” ॥1॥
वस्तुतः समस्त शिक्षाओं व विद्याभ्यासों का उद्देश्य चरित्र निर्माण है, परन्तु आधुनिक युग में यह उद्देश्य ही पीछे छूट रहा है। विश्वविद्यालयों में चारित्रिक प्रदूषण बढते चले जा रहें है, चरित्र व ब्रह्मचर्य की बातें तो मानो मजाक का विषय बन कर रह गयी है। ऐसी स्थिति में विद्यार्थी भी विद्याध्ययन के प्रमुख उद्देश्य से भटक कर तनाव व मानसिक संताप जैसी अवस्थाओं को प्राप्त कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में गीता ज्ञान परम सहायक है। गीता के दर्शन में हर किसी को धर्मपालन हेतु कहा गया है। छात्रों को भी छात्रत्व (छात्र धर्म) का पालन करना चाहिये जिसमें सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य ही है। भारतीय संस्कृति में छात्र जीवन की शुरुआत ब्रह्मचर्य से ही मानी गई है व श्रीमद्भगवद्गीता में भी इसका संकेत प्राप्त होता है। स्वयं श्रीकृष्ण ने अर्जुन को शिष्य के रूप में स्वीकार करते हुए ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी है।
“भगवान् कृष्ण द्वारा अर्जुन को शिष्य के रूप में उपदेश :-
“युद्धभूमि” में स्वयं को परिजनों के समक्ष खड़ा हुआ देखकर अर्जुन किं कर्तव्यमूढ़ होकर धर्म व अधर्म के विषय में विषादग्रस्त हो गया। कर्तव्य व अकर्तव्य को लेकर द्वन्द्व की दशा में वह श्रीकृष्ण की शरण में जाता है व कहता है कि जिस मार्ग अथवा ज्ञान से मेरा कल्याण हो सके मुझे वह मार्ग बतलाइये मैं आपका शिष्य हूँ।
कार्पण्यदोषोपहतः स्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥2॥
छात्रावस्था में अनेक बार अर्जुन की तरह की विषादावस्था व द्वन्द्वमय स्थिति बन जाती है, ऐसी स्थिति में गीता महा-औषध का कार्य कर सकती है।
छात्रों हेतु युक्तयोग :-
नित्य अनुशासन छात्रों का धर्म है। अनुशासन में रहना सीखना ही छात्रजीवन का उद्देश्य भी है। योगयुक्त जीवन जीना इसका सर्वोत्तम मार्ग है, इसीलिये श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को योगमार्ग चुनने के लिये “योग– युक्तो भवार्जुन“॥ 3॥कहा है । आज के छात्रों को भी योगयुक्त मार्ग अपनाना चाहिये। जीवन को योगमय बनाने हेतु युक्त-आहार, युक्त-विहार, युक्तस्वप्नावबोध व कर्त्तव्य के प्रति युक्त चेष्टा वाला होना चाहिये। इस प्रकार जीवन के प्रत्येक स्तर पर योग से युक्त मार्ग को अपनाने से दुखों का भी नाश होता है-
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥4॥
योगयुक्त आहार :-
छात्रों हेतु युक्ताहार का उपदेश वरदान स्वरूप है। युक्त आहार अर्थात् सन्तुलित, सात्विक, शुद्ध, न अत्यधिक उष्ण, न अत्यधिक शीत, न अधिक तीक्ष्ण, न ही रुक्ष्ण (रूखा-सूखा) होना चाहिये। यहाँ पर युक्त-आहार का संकेत मात्र किया गया है। आयुर्वेद के ग्रन्थों के अनुसार आहार का प्रमाण, मात्रा, भोजन का समय, व खाद्यसामग्री आदि का निश्चय किया जा सकता है। नीतिशास्त्र के ग्रन्थों में भी छात्रों हेतु अल्पाहार को ही प्रशस्त व युक्त कहा गया है, जैसे-
अल्पाहारी गृहत्यागी।
विद्यार्थिपञ्चलक्षणम्॥ 5॥
चरकसंहित आदि ग्रन्थों में ऋतुचर्या जैसे प्रकरणों में ऋतु के अनुसार खाद्य और अखाद्य पदार्थों का विचार कर विद्यार्थियों हेतु योगयुक्त आहार की परिकल्पना की जा सकती है। विद्यार्थियों हेतु युक्त भोजन में पदार्थ (गव्यपदार्थ गौदुग्ध, दधि, छाछ,घी) इत्यादि अवश्य होने चाहिये। प्रात:राश ( सुबह के भोजन) में दही, मध्याहन के भोजन में छाछ व रात्रि भोजन के पश्चात् दुग्ध अवश्य होना चाहिये। छात्रजीवन में ब्रह्मचर्य का परिपालन अभीष्ट है, इसलिये रात्रि भोजन में दही वर्जित है, यथा :-
“नक्तं दधि न भुञ्जीत” ॥6॥
इस प्रकार योग-युक्त आहार छात्रों के उत्तम स्वास्थय व नियम परिपालन में सहायक सिद्ध होता है। गीताकार ने युक्ताहार को निम्न श्लोक के माध्यम से कहा है-
कटु–अम्ललवणत्युष्णतीक्ष्णरुक्षविदाहिन: ।
आहारा: राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥7॥
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत् ।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियं ॥
उपर्युक्त दोनों श्लोकों में क्रमश: रजोगुण व तमोगुण युक्त भोजन के बारे में कहा गया है। यहाँ अत्यधिक कडवा,खट्टा, गर्म, शीत को राजस व उच्छिष्ट, रसहीन अपवित्र को तामस भोजन कहा है। इनसे भिन्न सात्विक भोजन होता है। इस प्रकार छात्रों को शास्त्रीय प्रमाणानुसार आहार शुद्धि का भी ध्यान रखना चाहिये, क्योंकि “आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवास्मृति:” ॥8॥ छात्रों को स्थिरमति हेतु आहारशुद्धि का भी ध्यान रखना चाहिये। उपर्युक्त अनेक नियमों से युक्त भोजन को ही योग-युक्त भोजन कहा जाता है।
युक्त स्वप्नावबोध :-
युक्त स्वप्नाबोध का अर्थ है, शयन व जागरण को भी शास्त्रीय नियमों व प्रकृति के साथ जोड दिया जाये तो वह शयन व जागरण की दिनचर्या भी योगयुक्त बन जायेगी। छात्रों के जीवन में नियमपूर्वक शयन व जागरण का बहुत महत्त्व है। नीतिग्रन्थों में विद्यार्थी के पञ्चलक्षणों में “काक चेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च“॥9॥ इत्यादि पद्य में विद्यार्थी को निद्रावस्था मे भी ज्ञान के प्रति सचेत रहने का संकेत किया है। श्रीमद्भगवद्गीता में योग-युक्त शयन से तात्पर्य यही है कि शास्त्र व प्रकृति का उल्लंघन न हो, क्योंकि कम से कम सूर्योदय के पश्चात जागरण की परम्परा भारतीय नहीं है। न केवल भारत अपितु किसी भी देश के विद्यार्थी को सूर्योदय से पूर्व ही जाग जाना चाहिए व रात्रि के दूसरे प्रहर में सोना चाहिये। यही युक्त-शयन व युक्त-जागरण कहा गया है। योग-युक्त जागरण में विद्यार्थियों की अनेक समस्याओं का समाधान है। योगयुक्त जागरण से ब्रह्मचर्य की रक्षा सम्भव है यद्यपि आज के छात्रों में ब्रह्मचर्य की चर्चा समाप्तप्राय है परन्तु यह भी सत्य है कि ब्रह्मचर्य की अवधारणा के बिना निरन्तर बढ़ता हुआ व्यभिचार नहीं रोका जा सकता। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता में अनेक बार कहते हैं “योगयुक्तो भवार्जुन “। अर्जुन को निमित्त बनाकर दिये गये उपदेशों को समस्त छात्रों के जीवन में उतारा ही जाना चाहिये। समयानुसार ( उचित व शास्त्र निर्देशानुसार) जागरण व शयन का सम्बन्ध त्रिगुण (सत्व, रज,तम) से भी है। तीनों गुणों के प्रकृति के अनुसार रहने से स्वास्थ्यजन्य अनेक समस्याओं का समाधान सम्भव है।
छात्रों को प्रकृति के साथ जुड़ना चाहिये :-
विज्ञान के मशीनीकरण के साथ-साथ ही मानव को अनेक समस्यायें मुफ्त में मिल रही है। आज के युग में बालक, युवा व वृद्ध सभी इन्टरनेट व मोबाइल के अत्यधिक उपयोग से शारीरिक व मानसिक रोगों से ग्रसित हो रहे हैं। इसी क्रम में विद्यार्थी भी शामिल हैं, ऑनलाईन शिक्षा के बहाने प्रत्येक विद्यार्थी के हाथ में मोबाइल व इन्टरनेट पहुँच चुका है। इसके अनावश्यक व अनर्गल उपयोग से कम उम्र के छात्र-छात्रायें तनाव, मानसिक अवसाद, व्यभिचार व चारित्रिक प्रदूषण के शिकार हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में श्रीमद्भगवद्गीता के दशमाध्याय में संकेत किया गया है कि “आदित्यानामहं विष्णुः ज्योतिषां रविरंशुमान् “॥10॥ अर्थात् नारायण ने स्वयं को आकाश में घूमने वाले ग्रहपिण्डों व प्रकाशयुक्त बिम्बों में सूर्य के रूप में स्वीकार किया है। छात्रों को सूर्य के समान निरन्तर अध्ययन में लगे रहना चाहिये। छात्रों को स्वयं की दिनचर्या सूर्य के अनुसार व्यवस्थित करते हुये स्वयं को सूर्य के साथ जोड़ लेना चाहिये। क्योंकि सूर्योदय से पूर्व ब्रह्ममूहुर्त में जागरण, नित्य सूर्य समुपासना, नियमित उत्तम स्वास्थ्य हेतु सूर्य नमस्कार चक्र, सूर्यार्ध्य, व आदित्यस्तोत्रपाठादि क्रियाओं से छात्रों का जीवन प्रकृति के साथ जुडते हुये योगयुक्त हो सकेगा।
छात्रों हेतु गीता में निर्दिष्ट कुछ विशेष व उत्तम गुण :-
गीता में अर्जुन स्वयं को श्रीकृष्ण के समक्ष समर्पित करते हुये शिष्य के रूप में उपदेश प्राप्त करना चाहता है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान प्राप्ति हेतु शिष्यों की चार श्रेणियां बताई है- • जिनमें आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी व ज्ञानी प्रमुख है-
आर्तो जिज्ञासु: अर्थार्थी,|
ज्ञानी च भरतर्षभ॥11॥
चतुर्विध शिष्यों में श्रद्धा अनिवार्य रूप से होनी ही चाहिये, क्योंकि श्रद्धावान् को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसीलिये गीता में भी कहा गया है –
“श्रद्धावान् लभते ज्ञानं,
तत्पर: संयतेन्द्रिय:” ॥12॥
अर्थात् जो गुरु के द्वारा उपदिष्ट वाक्यों में श्रद्धा रखता हो व जो इन्द्रियसंयमी हो, इन दोनों गुणों वाला शिष्य ही ज्ञान को शीघ्रता से प्राप्त करता है। ज्ञान के पश्चात जो ज्ञान का प्रकाश अथवा आनन्द है उससे परम शान्ति का अनुभव होता है-
“ज्ञानं लब्ध्वा परमां शान्तिम् |
अचिरेणाधिगच्छति” ।।13॥
विद्यार्थियों का संशय रहित होना अनिवार्य :-
छात्रावस्था विभिन्न प्रश्न, प्रति-प्रश्न के द्वारा संशयों के छेदन से जुड़ी हुई है। छात्र अर्थात् प्रश्न व उत्तर। जहाँ छात्र है वहाँ प्रश्नोत्तरी होनी ही चाहिये, क्योंकि “पृच्छको॓स्ति खलु पण्डित : “ अर्थात् प्रश्न पूछने वाला छात्र ही पण्डा बुद्धि (सद् असद् विवेकिनी बुद्धि) से संयुक्त होता है। प्रश्नों के साथ-साथ विषयों पर चर्चा परिचर्चा भी आवश्यक है। चर्चा से कई विषय सहजता से सामने आने लगते हैं, कहा भी गया है कि “वादे वादे जायते तत्वबोध:” इस प्रकार पुन: प्रतिप्रश्न से प्रसन्न होकर तत्वदर्शी गुरुजन ज्ञान का सन्मार्ग उपदिष्ट करते है। यथा-
तदविद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
“उपदेश्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः” ॥15॥
छात्रों का गुरुजनों के प्रति प्रणिपात अर्थात् नमस्कार आदि से युक्त होना भी आवश्यक है। गुरु के आदेश से संशय दूर हो जाते है। संशयों का दूर होना आवश्यक है क्योंकि संदिग्धबुद्धि का अस्तित्व समाप्त हो जाता है –
“संशयात्मा विनश्यति“॥16॥
विद्यार्थियों हेतु कर्मोपदेश :-
श्रीमन्नारायण द्वारा अर्जुन को दिया गया वह दिव्य उपदेश जो कि सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शक बन गया उसका एक प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि, कर्म में ही मनुष्य का अधिकार है न कि फ़ल में, फल के साथ संयुक्त होने से फल नहीं मिलने की दशा में दु:ख उत्पन्न होता है, इसलिये अनासक्त भाव से निरन्तर ही कर्म करने चाहिये। गीता का यह सर्वप्रसिद्ध सिद्धांत है :-
“कर्मण्येवाधिकारस्ते
मा फलेषु कदाचन।
मा कर्म फलहेतुर्भूः
मा ते सङ्गोऽस्तु कर्माणि” ॥17॥
विद्यार्थियों को एकाग्र भाव से अन्यान्य विषयों का परित्याग करते हुये केवल सतत अध्ययन को ही निजधर्म समझते हुये जीवन पथ पर बढ़ते जाना चाहिये। सोशल मीडिया के वर्तमान समय में एकाग्र बुद्धि होना अत्यधिक कठिन व दुष्कर प्रतीत होता है गीता के सूत्रों से एकाग्रता को प्राप्त किया जा सकता है, इसका साधन उपाय है अभ्यास व वैराग्य, यथा :-
“अभ्यासेन च कौन्तेय वैराग्येण च गृहयते “॥18॥
विद्यार्थी को उत्तम व सात्विक कर्ता होना चाहिये। सात्त्विक कर्ता से तात्पर्य गीता के अनुसार निम्न है।
मुक्तासङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकार: कर्ता सात्विक उच्च्यते ॥19॥
मुक्तसग्ङ – कर्म फल से युक्त नही होने वाला।
अनहंवादी – अहंकार रहित ।
धृत्युत्साहसमन्वित: – धैर्य, व उत्साह से दुक्त ।
सिद्धयो सिद्धयो: निर्विकार: – सफलता व असफलता
में विकृत मन वाला नही हो, अर्थात् लाभ व हानि में समत्व व्यवहार वाला ही उत्तम कर्ता होता है।
इसके विपरीत विद्यार्थियों को सर्वदा तामसिक कर्तृत्व वाले लक्षणों का प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिये। विषाद व दीर्घ सूत्रता का त्याग छात्रों को करना ही चाहिये।
“विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते” ॥20॥
विषादी = आलस्ययुक्त
दीर्घसूत्री = कम समय में हो सकने वाले कार्य को भी बहुत विलम्ब से करना दीर्घसूत्रता कहलाती है।
विद्यार्थियों हेतु अन्य आवश्यक व पालनीय विषय–
विद्यार्थी का जीवन अनुशासन सीखनें का प्रथम स्तर है इसलिये विद्यार्थी व ब्रद्माचारियों हेतु विभिन्न शास्त्रों में अनेक नित्य पालनीय नियम बताये गये हैं। नियमों में बंध जाना बुरा नहीं है। यदि उन नियमों से जीवन का कल्याण हो रहा हो । शास्त्र कहता है “यमनियमान्वितो चरित्र- वान्” अर्थात् यम व नियमों में बंधा मनुष्य ही चरित्रवान् होता है । अन्य प्रमाणानुसार “सहस्त्रनियमैः योगी” अर्थात् हजारों नियमों के परिचालन से योगी बना जाता है ।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अपने शिष्य अर्जुन को बार-बार कहते हैं – कि तुम योगी बनो, योग बुद्धि से कर्म करो यथा :-
“तस्माद्योगी भवार्जुन“
“योगस्य कुरु कर्माणि“
सनातन बन रहने वाले नीता के सिद्धान्त और उपदेश आज के छात्रों के लिये भी उतने ही उपयोगी है जितने अर्जुन के लिये थे । आज हर विद्यार्थी अर्जुन की तरह द्वन्द्व की दशा में है, तनाव में है, संतप्त है। ऎसी स्थित में ज्ञानयोग, कर्म योग, सांख्य योग आदि से सम्बन्धित समस्त सिद्धान्तों को विद्यार्थियों को जीवन में उतरना ही चाहिये ।
गीतानुसार काम, क्रोध, तथा लोभ का सर्वथा परित्याग करना चाहिये । क्योंकि काम से क्रोध, क्रोध से सम्मोह, सम्मोह से मतिभ्रम, मतिभ्रम से बुद्धिनाश व अन्ततः बुद्धिनाश से पतन निश्चित है। इस प्रकार एक सन्मार्ग पर स्थित मनुष्य को भी काम व कोध पतन के अन्तिम स्तर पर ले जाकर रख देते है। गीता काम, कोध से पतन के मार्ग को निम्न श्लोकों में समझाया गया है ।
ध्यायतो विषयान् पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् पुणश्यति ॥
विद्यार्थियों को सात्विक सुख, सात्विक आहार, सात्विक कर्म के ही मार्ग को चुनना चाहिये । क्योंकि सात्विक मार्ग की आरम्भ में विष की तरह परन्तु फल में अमृत की तरह होता है, यह खुख आत्मा व बुद्धि के मार्ग से ही उत्पन्न होता है, यथा :-
यन्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोषमम् ।
तत्सुखं सात्विकं प्रोक्तं मात्मबुद्धिप्रसादजम् ।।21॥
विद्यार्थियों को अध्ययन के प्रति स्थितमति होना चाहिये । इस विषय में गीताकार एक उपमा के माध्यम से समझाते है कि जिस प्रकार कछुआ अपने अग्ङों को सिखोडकर वाहय घातकों से स्वयं की रक्षा करता है उसी प्रकार स्थिरमति प्राप्ति के इच्छुकों को बाह्य विषयों ( शब्द, स्पर्श, रस, रूप व गन्धादि से उत्पन्न विषयों) से ज्ञानेन्द्रियों को विषयविमुखी बनाना चाहिये ।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽग्ङानीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्मिता ॥22॥
इस प्रकार प्रतिष्ठित प्रज्ञ विद्यार्थी न केवल एकाग्रमना होकर विद्या ध्ययन में निपुण होगा अपितु जीवन के उद्देश्यों को समझकर कर्तव्य पथों पर निरन्तर बढ़ चलेगा ।
सार :-
उपर्युक्त शोधपत्र में अर्जुन को कहे गये समस्त आदेश उपदेश अपना सिद्धान्तों का समन्वय विद्यार्थीयों के पक्ष घटाने का प्रयास किया है। वस्तुतः गीता के सिद्धान्त सार्वभौमिक, सार्वकालिक सर्वग्राह्य है । स्वयं श्रीकृष्ण ने अर्जुन को शिष्य व सखा मानकर सन्मार्ग प्रशस्त किया है इसलिये विद्यार्थियों के लिये ये उपदेश अत्यधिक प्रासग्ङिक है । श्रीमद्भगवद्गीता के अनेक टीकाकारों, व्याख्याकारों, उपदेशकों की वाणी का यह सार है कि गीता को विद्यार्थी जीवन में अवश्य उतारा जाना चाहिए जिससे मानव जीवन की नींव सुदृढ़ हो सके। इस इन टीकाकारों व गीता अध्येताओं का यह अनुभव है कि गीता को नियमित अध्ययन में लाने से गीता के सिद्धान्त जीवन में उतरने लगतें हैं, इसीलिये भारत वर्ष में गीता के पाठ व श्रवण की परम्परा है। कुछ ही समय के नियमित अध्ययन से गीता के सिद्धान्तों का मानव मस्तिष्क में स्फोट होने लगता है व जीवन ज्ञानानन्द से भर उठता है, संशय दूर होने लगतें है मन शान्त व एकाग्र होने लगता है। अतः विद्यार्थियों हेतु यह महत्वपूर्ण संकेत है कि उन्हें गीता के नियमित पाठ विधि का आश्रय लेकर गीता को जीवन में उतारने का मार्ग खोल देना चाहिये ।
सन्दर्भ :-
1. श्रीमद्भगवद्गीता अष्टाध्यायश्लोक – 11
2. श्रीमद्भगवद्गीता द्वितियाध्याय, श्लोक– 07
3. श्रीमद्भगवद्गीता अष्टाध्याय, श्लोक – 27
4. श्रीमद्भगवद्गीता षष्टाध्याय, श्लोक – 17
5.
6. चरकसूत्र, 8/20|
7. श्री मद्भगवद्गीता, सप्तदशाध्याय, श्लोक– 09
8.
9.
10. श्रीमद्भगवद्गीता, दशमाध्याय, श्लोक – 21
11. श्रीमद्भगवद्गीता सप्तमाध्याय श्लोक – 16
12.श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थाध्याय श्लोक– 39 पूर्वार्द्ध
13.श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थाध्याय श्लोक – 39 उत्तरार्द्ध
14.
15.श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थाध्याय श्लोक – 34
16. श्रीमद्भगवद्गीता चतुर्थाध्याय श्लोक – 40
17.श्रीमद्भगवद्गीता द्वितियाध्याय, श्लोक – 47
18.श्रीमद्भगवद्गीता षष्टाध्याय, श्लोक – 35
19.श्रीमद्भगवद्गीता अष्टाध्यायः, श्लोक – 26
20.श्रीमद्भगवद्गीता अष्टाध्यायः, श्लोक – 28
21.श्रीमद्भगवद्गीता अष्टाध्यायः, श्लोक – 37
22. श्रीमद्भगवद्गीता द्वितियाध्याय, श्लोक – 58
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