शुद्धिकरण/शौच का सामान्य परिचय

शुद्धिकरण/शौच का सामान्य परिचय

मनुष्य को आध्यात्मिक बनाएं रखना ही भारतीय संस्कृति का लक्ष्य है, आध्यात्मिक बने रहने के लिए निरन्तर पूजा-पाठ, जपकर्म, अनुष्ठान कर्म और यज्ञों का विधिवत् अनुष्ठान करने की शास्त्रीय परम्परा है। यज्ञ अनुष्ठान की शास्त्रीय परम्परा और यज्ञ अनुष्ठान की विधियाँ बिना शुद्धिकरण के फलदाई नहीं होती है, इसलिए शुद्धिकरण अत्यावश्यक है।

शुद्धिकरण की प्रक्रिया को पूरा करने में जल का बहुत योगदान है, बिना जल के शुद्धिकरण की प्रक्रिया सम्भव नहीं है। भारतीय संस्कृति के स्मृतिशास्त्र व धर्मग्रन्थों में शुद्धिकरण की प्रक्रिया के लिए विशिष्ट प्रकरण निर्धारित है। धर्मशास्त्र के अनुसार शुद्धि दो प्रकार की होती है, बाह्य व आभ्यन्तर (“शुद्धिर्द्विधा”) बाह्यः आभ्यन्तरश्च। धर्मशास्त्र में शुद्धिकरण सम्बन्धी विचार को “अशौचनिर्णय “के नाम से जाना जाता है। पूर्वोक्त दोनों प्रकार की शुद्धियाँ जल से सम्पन्न होती है। बा‌ह्य शुद्धि स्नान करने से होती है, इसलिए धर्मशास्त्र में बार-बार कहा गया है “स्नात्वा शुद्धिं समाचरेत्”। इसी प्रकार आंतरिक शुद्धि भी जल से ही सम्भव होती है इसलिए कहा गया है -“त्रिराचम्य शुद्धिर्भवेत्” अर्थात् तीन बार आचमन करने से शुद्धि होती है। इसलिए पूजा व धार्मिक क्रिया का आरम्भ ही शुद्धिकरण व पवित्रिकरण से होता है।

पूजा की शुरुआत ही –

“अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ।।”

इस मन्त्र से होती है। इसके बाद तीन बार आचमन करवाकर आन्तरिक शुद्धि की जाती है।

यथा –
केशवाय नमः । माधवाय नमः । गोविन्दाय नमः ।

इस प्रकार यह दैनिक शुद्धिकरण के नियम है। कुछ अशुद्धियाँ अवसरजन्य होती है जिनका शुद्धिकरण शास्त्रीय नियमों व परम्परागत रुढि के अनुसार सम्पन्न होता है। इस प्रकार अशौच को पुनः दो भागों में विभक्त किया गया है –

1. मरणाशौच
2. जननाशौच

मरण अशौच

मृत्यु के बाद कुल के सदस्यों को परिजनों को सामूहिक अशौच या सूतक लग जाता है। इसकी निवृति या शुद्धिकरण के लिए स्मृतिशास्त्र में भिन्न-भिन्न आचार्यों के भिन्न भिन्न प्रमाण मिलते है। वर्ग के अनुसार शुद्धि का समय निर्धारित किया गया है। परन्तु सभी वर्गों के लिए सामान्यतया 10 दिन में शुद्धिकरण माना गया है।

“दशमे दिवसे तावत् स्नानं ग्रामात् बहिर्भवेत् “
“तस्मात् तत्रैव त्याज्यानि केशश्मश्रुनखादीनि “

अर्थात् मृत्यु से 10 वें दिन गांव से बाहर जाकर सामूहिक स्नान व स्नान के बाद केश, दाढ़ी व नाखून का त्याग करने पर शुद्धिकरण की प्रक्रिया सम्पन्न मानी गई है। वर्तमान में यही परम्परा प्रचलित भी है।

मरण अशौच में देवदर्शन व पूजा-पाठ, सन्ध्या वन्दनादि का सर्वथा निषेध रहता है, अर्थात् मन से भी पूजा नहीं करनी चाहिए।

जनन अशौच

परिवार में पुत्र / पुत्री के जन्म के बाद भी अशौच या सूतक लग जाता है, जिसकी शुद्धि 10 वे दिन मानी जाती है।

दशाहं शावमाशौचं सपिण्डेषु विधियते ।
जननेऽप्येवमेव स्थान्निपुणां शुद्धिमिच्छताम् ॥

जनन अशौच में भी पूजा-पाठ आदि कार्य वर्जित रहते हैं, परंतु सन्ध्या वन्दनादि नित्यकर्म को मानसिक विधि से सम्पन्न किया जा सकता है। इस प्रकार शुद्धि व अशुद्धि का शास्त्रीय प्रभावों के आधार पर निर्णय करके समस्त धार्मिक कृत्यों का सम्पादन करने से संकल्पित कार्य की सिद्धि होती


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