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जैनदर्शन में रत्नत्रय
जैनदर्शन में रत्नत्रय-सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान सम्यक् चरित्र इन तीनों को जैन दर्शन में रत्नत्रय की संज्ञा दी गई है। इन तीनों को मोक्ष का मार्ग कहा गया है।
“सम्यक्दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग:”
सम्यक दर्शन– जैन शास्त्रों में कहे गए तत्वों में श्रद्धा रखना ही सम्यक दर्शन कहलाता है। अथवा जैन आचार्य व जैन मुनियों के द्वारा प्रतिपादित तत्वों में रुचि रखना ही सम्यक श्रद्धा कहलाता है । यह श्रद्धा जैन मुनियों द्वारा प्रतिपादित तत्वों व जैन आचार्य व मुनियों के साथ रहने अथवा उनकी वाणी के श्रवण से उत्पन्न होती है-
तत्त्वार्थे श्रद्धानं सम्यग्दर्शनमिति
रुचिर्जिनोक्ततत्वेषु सम्यक्श्रद्धानमुच्यते ।
जायते तन्निसर्गेण गुरोरधिगमेन वा ॥
सम्यक ज्ञान– तत्वों का ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान कहलाता है। यह तत्व पांच कहे गए हैं- मति, श्रुति, अवधि, मनपर्याय व केवल्य।
सम्यक चरित्र– जैन दर्शन में प्रतिपादित निषिद्धों का त्याग ही सम्यक्चरित्र कहा गया है। सम्यक्चरित्र हेतु 5 व्रतों का पालन आवश्यक है ये व्रत है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय,ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह।
अहिंसासूनृतास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः।
अहिंसा– जैन दर्शन में मनवाणी व कर्म से किसी भी मनुष्य प्राणी वृक्ष अथवा जीव पशुओं आदि को कष्ट देना हिंसा कहलाता है , इसका त्याग ही अहिंसा है।
न यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम्।
चराणां स्थावराणां च तदहिंसाब्रतं मतम्।।
सत्य– मन,वाणी व कर्म से यथार्थ को व्यक्त करना ही सत्य कहा गया है। यह सत्य मधुर व प्रिय लगने वाला होना चाहिए। कटु लगने वाले सत्य को जैन दर्शन में सम्यक् नहीं कहा गया-
प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सूनृतं ब्रतमुच्यते।
तत्तथ्यमपि नो तथ्यमप्रियं चाहितं च यत्।।
अस्तेय– किसी के दिए बिना किसी वस्तु को नहीं लेना अस्तेय कहलाता है अर्थ अर्थ किसी के दिए बिना किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
अनादानमदत्तस्यास्तेयव्रतमुदीरितम्।
बाह्याः प्राणा नृणामर्थों हरता तं हता हि ते।।
ब्रह्मचर्य– काम का परित्याग ब्रम्हचर्य है।
दिव्यौदरिककामानां कृतानुमतकारिकतैः।
मनोवाक्कायतस्त्यागो ब्रह्माष्टादशधा मतम्॥
अपरिग्रह– हर प्रकार से इच्छाओं को त्याग देना अपरिग्रह कहलाता है-
सर्वभावेषु मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः।
यदसत्स्वपि जायेत मूर्छया चित्तविल्पवः।।
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