वास्तु का परिचय

                                    वास्तु का परिचय

संस्कृत अपार ज्ञान विज्ञान का भंडार है चिरंतन काल से ही संस्कृत वांग्मय में  ज्ञान-विज्ञान की अनेक समृद्ध परंपराएं समाहित है। इन्हीं वैज्ञानिक परंपराओं में से एक समृद्ध वैज्ञानिक परंपरा वास्तु विज्ञान की थी जिसका निरंतर प्रवाह वैदिक काल से ही चलता रहा है। वास्तु विज्ञान का मूल अथर्ववेद के उपवेद शिल्पवेद में प्राप्त होता है जहां देवताओं के निवास हेतु मंदिर इत्यादि के वास्तु के सूत्र दिए गए हैं परंतु इन्हीं सूत्रों का विस्तार रूप हमें वास्तुशास्त्र के प्रमुख ग्रंथों समरांगण सूत्रधार व मयमतम इत्यादि ग्रंथों में देखने को मिलता है

आचार्य वराहमिहिर के अनुसार वास्तु का अर्थ है घर में रहने वाला एक विशेष देवता अथवा सकती जो कि प्रत्येक उस व्यक्ति पर प्रभाव डालता है जो उस घर में रह रहा है।  घर में रहने वाली इसी विशेष शक्ति अथवा देवता का नाम वास्तु पुरुष है इसी वास्तु पुरुष का सामान्य परिचय व भूखंड विभाग से संबंधित लोकोपयोगी वास्तु विज्ञान के कुछ अंश पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए गए हैं जो कि छात्रों को वास्तुशास्त्र के सामान्य परिचय से अवगत करायेंगे।

वास्तु शास्त्र के विभिन्न विषयों में जैसे भूमि परीक्षण वास्तु पुरुष की अवधारणा गृह आरंभ गृह प्रवेश द्वारा स्थापन इत्यादि विषयों का सामान्य परिचय किया जाना अपेक्षित है।

भूमि परीक्षण

निवास योग्य भूमि के चयन हेतु की जाने वाली प्रक्रिया भूमि परीक्षण कहलाती है इसके अनुसार शास्त्रों में प्रतिपादित विभिन्न शास्त्री के नियमों की कसौटी में भूमि को रखते हुए भूमि का परीक्षण किया जाता है जैसे भूमि किस प्रकार की है उसकी सुगंध के आधार पर उसके स्वाद के आधार पर उसके चारों तरफ उगे हुए वृक्षों वनस्पतियों में तैयारियों के आधार पर भूमिका शुभ और अशुभत्व की कल्पना की जाती है।

भूमि का आकार

निवास करने योग्य भूमि का आकार आयताकार अथवा वर्गाकार होना चाहिए। वृत्ताकार भूमि निवास के योग्य नहीं समझी जाती इसके अतिरिक्त त्रिकोण आकार अथवा पतंग आकार अथवा विभिन्न आकृति वाले भूमि भी मनुष्य के आवास के लिए उचित नहीं है।

निवास योग्य भूमि के लक्षण –

शस्तौषधि द्रुमलता मधुरा सुगन्धा

स्निग्धा समा शिशिरा मही नराणाम्।

अप्यध्वनि श्रमविनोदमुपागतानां

धत्ते श्रियं किमुत शाश्वतमन्दिरेषु।।

भूमि में प्लवत्व निर्णय

निवास योग्य भूमि चतुष्कोण आकार होनी चाहिए अथवा आयताकार होनी चाहिए इस आयताकार भूमि में मध्य भाग में प्लवत्व अथवा खड्डा शुभ नहीं है इसी तरह नैऋत्य कोण जोकि दक्षिण व पश्चिम दिशा के मध्य में होता है उसमें भी खड्डा अथवा ढलान उचित नहीं है उत्तर दिशा अथवा ईशान कोण की तरफ प्लवत्व शुभ कहा गया है पश्चिम दिशा की तरफ प्लवत्व अथवा ढलान अशुभ माना गया है।

वास्तु भूमि में दिशानिर्णय कक्ष विन्यास

गृह निर्माण योग्य भूमि के विषय में सर्वर माननीय नियम यह है कि पूर्व व उत्तर दिशा के मध्य में ईशान कोण होता है। पूर्व व दक्षिण दिशा के मध्य में अग्निकोण दक्षिणी व पश्चिम के मध्य में नैऋत्य कोण और पश्चिमोत्तर के मध्य में वायव्य कोण होता है। वायव्य कोण में अतिथि कक्ष अथवा ग्रह बालिका कक्ष का निर्माण किया जाता है। उत्तर दिशा में जल अथवा स्नान ग्रह का निर्माण होता है। ईशान कोण में देवता कक्ष, पूर्व दिशा में जल से संबंधित स्थान अथवा द्वार की स्थापना होती है। अग्नि कोण में रसोई की स्थापना होती है। दक्षिण दिशा में शयन कक्षों की स्थापना, इसी तरह नृत्य कोण में कोई भी खड्डा अथवा जल कूप इत्यादि का निर्माण नहीं होना चाहिए। पश्चिम व नैऋत्य के मध्य में अध्ययन कक्ष,  पश्चिम में शौचालय का निर्माण किया जा सकता है।

                  कक्ष विन्यास बोधक चित्र


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