भारतीय संस्कृति व ज्ञान परम्पराओं में पर्यावरण संरक्षण की चेतना व अवधारणा

भारतीय संस्कृति व ज्ञान परम्पराओं में पर्यावरण संरक्षण की चेतना अवधारणा

 भारतीय संस्कृति के विविध आयामों में व परम्पराओं में जल,  अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश आदि पांच महाभूतों के प्रति जो आदि भौतिक दृष्टि है,  जो देवत्व की परिकल्पना है वह पर्यावरण संरक्षण का मूल आधार है ।  भारतीय संस्कृति व परंपराओं के अनुसार पृथ्वी केवल एक मिट्टी का भौतिक पिंड नहीं है अपितु वह पृथ्वी माता है। अथर्ववेद में कहा गया है की माता भूमि है व मैं उसका पुत्र हूं-

                            माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या:

जल केवल एक भौतिक पदार्थ नहीं है अपितु उसमें वरुण के शरीर की प्रतिष्ठा है। इसलिए शास्त्रों में जल के अधिष्ठाता देवता वरुण को माना गया है व जल में साक्षात वरुण की प्रतिष्ठा स्वीकार की गई है।

                                            वरुणो देवता

                                       जले वरुण: प्रतिष्ठित:

जल वरुण का ही शरीर है इसलिए जल में मलमूत्र त्याग को निषिद्ध कहा गया है। जल में मलपुरीषादि त्याग को निषिद्ध कहा गया है। भारतीय परंपराओं में बचपन से ही बालक को यह समझाया जाता है कि जल में मूत्र विसर्जन से दोष उत्पत्ति होती है। जल के समक्ष निर्वस्त्र स्नान को वर्जित बताया गया है। यही भावना जल संरक्षण का मुख्य उपाय है अन्यथा तो अनेक प्रकार की संस्थाएं अनेक प्रकार के योजना,  आयोग कार्य  करकर भी जल संरक्षण की चेतना को जागृत नहीं कर पा रहे हैं। अतः जल संरक्षण का मूल आधार व मुख्य उपाय यही है कि भारतीय परंपराओं व संस्कृति का पुनरुत्थान करते हुए बालकों को बाल्यकाल से ही इसके प्रति सजग व जागृत किया जाए।

                         भारतीय परंपराओं में जल की पूजा

भारतीय परंपराओं में तीज त्योहार में विभिन्न संस्कारों में जल के प्रति पूज्य भाव व जल की पूजन की परंपरा रही है इसलिए प्रत्येक शुभ कार्य का आरंभ जल के कलश के सम्मुख स्थापना से होता है ।  वर्तमान में आधुनिक विज्ञान के द्वारा किए गए आधुनिक तकनीकी अनुसंधानों से भी यह सिद्ध हो गया है कि जल के परमाणु मनुष्य की भावनाओं को व मनुष्य के द्वारा कहे गए शब्दों को समझते हैं और उसके मुख से उच्चारित संकल्पना को पूर्ण करने में जल सहायक होता है । इसलिए जल केवल भौतिक पदार्थ नहीं है अपितु उसमें साक्षात वरुण देवता प्रतिष्ठित है। जल के प्रति इस प्रकार के उत्तम विचारों से भारत के पूर्वज बहुत पहले से ही परिचित थे इसलिए उन्होंने सामान्य व्यवहार में भी इस बात को अपनी पीढ़ी को सिखाया ह ।  इस प्रकार के विचार जल की शुद्धि वह स्वच्छता अभियानों के लिए भी बहुत कारगर सिद्ध होते हैं।

भारतीय संस्कृति व ज्ञान  परंपराओं  में वायु प्रदूषण का समाधान

पंचमहाभूतों में एक अन्य तत्व वायु के विषय में भी यही अवधारणा है। वायु की गुणवत्ता को बढ़ाने व वायु प्रदूषण व वायु विकारों को दूर करने के लिए ही विविध व्यक्तियों का अनुष्ठान होता है यज्ञ से निकलने वाला दुआ पर उसकी गुणवत्ता वायु प्रदूषण को दूर करते हुए उचित वृष्टि के बादल बनाने में सहायक होते हैं। आज वायु प्रदूषण एक महत्त्वपूर्ण समस्या बन गई है। वस्तुतः वर्तमान भारतीय समाज में पर्यावरण व वायु के प्रति संचेतना ही समाप्त हो चुकी है कहीं पर भी कोई भी कचरा इकट्ठा करके उसमें आग लगा देता है, यज्ञ में प्रयुक्त होने वाला घी व सामग्री भी अशुद्ध है। ऐसी स्थिति में वायु प्रदूषण को दूर करने के उपाय में विधिवत व शुद्ध हवनीय सामग्रियों से युक्त यज्ञ का अनुष्ठान वायु प्रदूषण को दूर कर सकता है

भारतीय संस्कृति व ज्ञान  परंपराओं में वृक्षारोपण का महत्त्व

 भारतीय संस्कृति व  में शास्त्रों में वृक्षारोपण का महत्व स्पष्ट दिखाई पड़ता है । श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण स्वयं को अश्वत्थ वृक्ष कहते हैं वह उसकी महत्ता को प्रतिपादित करते हैं।

                           अश्वत्थ सर्ववृक्षाणां

भारतीय वृत्त व त्योहारों में कई प्रकार के ऐसे व्रत है जिनमें महिलाएं वृक्षों की पूजा करती रही है। तुलसी पीपल आंवला आदि वृक्षों को महिलाएं नियमित जल सिंचन करके उनके प्रति पूज्य भाव व्यक्त करती रही हैं।

वृक्षारोपण के महत्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि 10 कुआं 1 बावरी के बराबर है 10 बावड़िया एक यज्ञ के बराबर है व 10 यज्ञ एक पुत्र के बराबर है वह 10 पुत्र एक वृक्ष के बराबर है अत वृक्षारोपण का महत्व सर्वाधिक प्रतिपादित किया गया है-

                           दशपुत्रसमो द्रुम :


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