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गर्भाधान संस्कार में काल का महत्त्व
गर्भाधान यह सर्वप्रथम संपादित किया जाने वाला संस्कार है यह संस्कार ही सभी संस्कारों में मुख्य व मूल कहा गया है । गर्भाधान संस्कार के संपादन में काल का बहुत महत्त्व है। इस संस्कार के बिना अन्य संस्कार का सम्पादन संभव ही नहीं है। इसलिए गर्भाधान को भी एक संस्कार का नाम दिया गया है। गर्भाधान शब्द का अर्थ है “गर्भ: संधार्यते येन कर्मणा” अर्थात जिस कर्म अथवा संस्कार के द्वारा स्त्री पुरुष के परस्पर सहयोग से गर्भ का निर्धारण हो वह गर्भाधान कहा गया है । इस गर्भाधान को भी संस्कार का नाम देने के पीछे मुख्य कारण यह है कि इसमें समय का बहुत योगदान होता है इसलिए गर्भाधान के लिए विशेष समय अथवा मुहूर्त कह गए हैं। गर्भ का निर्धारण समय के अनुसार हो तो गर्भ की पुष्टि होती है व उत्तम संतति की उत्पत्ति होती है। इसके विपरीत यदि शास्त्रों के अनुसार निषिद्ध समय में गर्भ की स्थापना होने पर गर्भ में स्थित संतति में विकार आने की संभावना रहती है। भारतीय धर्मशास्त्रों में कई प्रमाणों से यह कहा गया है कि गर्भाधान में समय का ध्यान नहीं रखने पर संतति में विकार उत्पन्न होते हैं । महर्षि कश्यप वह अदिति ने शास्त्र निषिद्ध समय में( सन्ध्या काल में ) गर्भाधान संपादित किया जिससे उन्हें हिरण्यकशिपु जैसे रक्षा की उत्पत्ति हुई।
अत: गर्भाधान हेतु पर्व काल(अमावस्या, पूर्णिमा), संध्या काल, निषेध तिथि, निषेध वार व नक्षत्र तथा निषिद्ध मुहूर्त का त्याग करना चाहिए। व गर्भाधान संस्कार के संपादन हेतु विशिष्ट तिथियां वार आदि कहे गये हैं उनका ग्रहण करना चाहिए । गर्भाधान संस्कार वर्तमान में आ रही सन्तति से सम्बंधित अनेक समस्यायों का समाधान प्रस्तुत करता ह ।
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