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कुरुक्षेत्र की प्राचीनता व परिचय
“कुरुक्षेत्र की प्राचीनता”
भारतीय प्राचीन खगोल शास्त्रों में प्रतिपादित दिशा,देश व काल का विशिष्ट संयोग है कुरुक्षेत्र। सरस्वती व दृषद्वती नदियों के किनारों पर अनुष्ठित किए जाने वाले सत्रान्त यज्ञों व अनुष्ठानों की यज्ञवेदी है कुरुक्षेत्र ।धर्मनिर्णय हेतु महाभारत के युद्ध में रणबांकुरे हाथियों की चींघाडन का प्रामाणिक साक्ष्य है कुरुक्षेत्र । छठी शताब्दी में राज्यवर्धन व हर्षवर्धन की हूणों व गौडों के आक्रमण के विरुद्ध भीषण प्रतिज्ञा का प्रमाण है कुरुक्षेत्र।महाभारत के युद्ध से पहले कुरुक्षेत्र की प्रसिद्धि धर्म क्षेत्र के रूप में थी।इसी से सम्बन्धित तथ्य और प्रामाणिक वचन वैदिकवांग्मय एवं पौराणिक ग्रन्थों में यत्र-तत्र प्राप्त होते हैं। पुराणों में प्राप्त वचनों के आधार पर कुरुक्षेत्र की प्राचीनता, कुरुक्षेत्र का राजनीतिक विस्तार, भौगोलिक स्वरूप व धार्मिक महत्व आदि के विषय में सटीक अनुमान लगाया जा सकता है। मनुस्मृति के अनुसार सरस्वती व दृषद्वती नदियों के मध्य में जो प्रदेश है, वह “ब्रह्मवर्त” प्रदेश है। महाभारत के वनपर्व में ब्रह्मवर्त प्रदेश के लिए अन्यान्य नाम प्राप्त होते हैं, जैसे-
आद्यं ब्रह्मसर: पुण्यं ततो नामह्रदं स्मृतम्।
कुरुणा ऋषिणा कृष्टं कुरुक्षेत्रं तत: स्मृतम्।।
शास्त्रीय प्रमाणों के अनुसार सरस्वती व दृृषद्वती नदी के मध्य का यह क्षेत्र “ब्रह्मवर्त“,”ब्राम्हसर“,”ब्रह्मवेदि“, “नागह्रद“, “रामह्रद“, “समन्तपञ्चक“ व उसके बाद कुरु वंश के चलते “कुरुक्षेत्र” नाम से विख्यात हुआ। जो कि ४८ कोस की परिधि में माना गया है। इसमें कई पुण्यसरोवर ,पवित्र कूप, सिद्ध पीठ स्थल ,व प्राचीन शिवमंदिर स्थित है।वैदिक वांग्मय में प्राप्त प्रमाणों के आधार पर यह क्षेत्र सत्रान्त (वर्ष तक चलने वाले )यज्ञों के अनुष्ठान का पावन स्थल था। सरस्वती के तट पर सम्पादित किए जाने वाले यज्ञों की वेदी कुरुक्षेत्र को ही कहा गया है, व देवता भी इस स्थान पर यज्ञों का आयोजन किया करते थे,यथा-
“तेषां कुरुक्षेत्रं वेदिरासीत्” –तैत्तरियब्राह्मण
“अविभुक्तं वै कुरुक्षेत्रं देवानां। देवयजनम्“-शतपथब्राह्मण
“दैवा वैः सत्रमासत कुरुक्षेत्रे” –मैत्रायणी संहिता
वैदिक साहित्य व पौराणिक ग्रन्थों के प्रमाणों के अतिरिक्त कुरुक्षेत्र की प्राचीनता का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है महाभारत ।महाभारत कालीन तथ्यों की प्रामाणिकता विभिन्न अनुसन्धान पद्धतियों से पुष्ट हुई है। कुरुक्षेत्रविश्वविद्यालय व भारतीय पुरातत्व विभाग के सर्वेक्षण ने यहां क्रमशः मिर्जापुर, भगवानपुर नामक उत्तर हड़प्पा कालीन (१८००ई.पू.)स्थलों का उत्खनन किया है। १ इन प्राचीन भग्नावशेषों से हमें कुरुक्षेत्र के पुराकालीन इतिहास का विवरण मिलता है जो कि ईसा से १८०० ई. पूर्व सिन्धु सभ्यता से मिलता है।
बुद्धकाल व उसके बाद कुरुक्षेत्र २ -वैदिककाल के बाद बुद्धकाल में भी कुरुक्षेत्र की सांस्कृतिक परम्परा अक्षुण्ण रही। बुद्ध काल में कुरुक्षेत्र १६ जनपदों में से एक था और इसे “कुरुजनपद” कहते थे। सम्राट अशोक द्वारा कुरुक्षेत्र में निर्मित स्तूप से इस क्षेत्र में बौद्धों की भी धार्मिक श्रद्धा प्रतीत होती है। मौर्य काल में चन्द्रगुप्त मौर्य के समय यूनानी विद्वान मेगस्थनीज ने कुरुक्षेत्र को रमणीय व शान्तिमय प्रदेश कहा है। गुप्तकालीन कुरुक्षेत्र का वर्णन कविकुलगुरू कालिदास की अमर कृति मेघदूत में मिलता है। गुप्तोत्तर काल के ग्रन्थ सूर्यसिद्धान्त में सन्निहित सरोवर को दोनों ध्रुवों में जाने वाले सूत्र में स्थित होना बताया गया है,यथा-
राक्षसालयदेवौक: शैलयोर्मध्यसूत्रगा:।
रोहितकमवन्ती च यथा सन्निहितं सर:।।
छठी शताब्दी में वर्धन वंश के उत्थान से कुरुक्षेत्र धर्म व संस्कृति के साथ राजनीति का केंद्र भी बन गया था।वर्धनों के शासन में स्थाणीस्वर (वर्तमान थानेसर )को राजधानी बनाया गया। हर्षवर्धन के राजकवि बाणभट्ट ने हर्षचरितम् काव्य में तत्कालीन परिस्थितियों, संस्कृति व सामाजिक स्थितियों का वर्णन किया है। इस ऐतिहासिक काव्य में हूणों के आक्रमण व गौडों के विरुद्ध हर्ष के पराक्रम की जानकारी मिलती है। १२वीं शताब्दी में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद कुरुक्षेत्र में मुस्लिम शासकों का अधिकार हो गया। १५वीं शताब्दी तक कुरुक्षेत्र पर मुस्लिम शासकों के अनेक आक्रमण हुए। थानेश्वर की सूफियों के परम्परा में शेखचिल्ली हुए जिनका मकबरा आज भी स्थित है।१५वीं शताब्दी में सिक्ख गुरुओं ने कुरुक्षेत्र की यात्राएं की ,जिनकी स्मृति में गुरुद्वारे बने। १८वीं शताब्दी में नादिरशाह व अहमदशाह के आक्रमण के बाद १८५० ई. में यहां अंग्रेजी शासन की स्थापना हो गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पुनः यहां संत निवास बने। कुरुक्षेत्र जो कि ४८ कोस का क्षेत्र है एक जिला बनाया गया ,व थानेसर (कुरुक्षेत्र) जिला मुख्यालय है। कुरुक्षेत्र का धार्मिक सांस्कृतिक व भौतिक विकास निरन्तर जारी है। इस हेतु कुरुक्षेत्र विकास मंडल, गीताभवन कुरुक्षेत्र ,आदरणीय गुलजारीलाल नंदा जी का योगदान महनीय है। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय गीता महोत्सव व अंतर्राष्ट्रीय गीता संगोष्ठी– कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय जैसे आयोजनों के माध्यम से गीतासंंदेेश सम्पूर्ण विश्व में फैल रहा है।
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