वास्तु का सामान्य परिचय

वास्तु का सामान्य परिचय

“वसति अस्मिन् इति वास्तु” अर्थात जिसमें रहा जाये वह वास्तु है। प्रत्येक निवास योग्य भूखण्ड में एक देवता की कल्पना की गई हैं और वह देवता “वास्तु पुरुष “के नाम से शास्त्रों में प्रतिष्ठित है। जिस प्रकार जल के अधिष्ठातृ देवता वरुण हैं, वृष्टि के अधिष्ठातृ देवता इन्द्र है, अग्नि के अधिष्ठातृ देवता अग्नि है, काल के अधिष्ठातृ देवता यम है, उसी प्रकार भवन या घर के अधिष्ठातृ देवता वास्तु देवता या वास्तुपुरुष के रूप में प्रसिद्ध है।

वस्तुत: भवन का भौतिक शरीर इष्टिका (ईंट), पत्थर, मृत चूर्ण से बना है, परन्तु आध्यात्मिक शरीर वास्तु पुरुष होता है। घर में बाह्य शरीर (ईंट, पत्थर, चूना) के साथ-साथ आन्तरिक शरीर (वास्तु पुरुष) की भी प्रतिष्ठा की जाती है। बाह्य शरीर की रंग रोगन के द्वारा सज्जा की जाती है उसी प्रकार आन्तरिक शरीर की वास्तु पूजन के द्वारा तृप्ति की जाती है। वास्तु पुरुष की तृप्ति व संतुष्टि के अभाव में आध्यात्मिक दुखों का संताप सताने लगता है। इसलिए नवनिर्मित भवन में वास्तुपुरुष की प्रतिष्ठा व विधिवत पूजन का विधान होता है।

वास्तु पुरुष की प्रतिष्ठा का अर्थ

निवास योग्य भूमि के चयन के पश्चात् उसमें निर्माणारम्भ से पूर्व ही वास्तु पुरुष की कल्पना कर लेनी चाहिए। वास्तु पुरुष उल्टे मुह ईशान कोण व पूर्व के मध्य शिर, नैऋत्य व पश्चिम के मध्य पैर करके सो रहा होता है। इस वास्तु पुरुष के कई मर्मस्थल (नाजुक अङ्ग) माने गये हैं, और इन मर्म स्थानों पर गड्डा, स्तम्भ रोपण, कील इत्यादि का रोपण नहीं करना चाहिए अन्यथा गृहपति (घर के मालिक) को भी उन-उन अंगो में पीड़ा का अनुभव होता है, इसलिए मर्म स्थान को पीडित नहीं करना चाहिये l

इस विषय में आचार्य वराहमिहिर कहते है –

सम्पाता वंशानां मध्यानि समानि यानि च पदानाम् ।
मर्माणि तानि विन्द्यान्न तानि परिपीडयेत् प्राज्ञः ॥

मर्म स्थान में यदि अशुचि भाण्ड (अपवित्र बर्तन) या वस्तु, कील, सुई, स्तम्भ, पाषाण तथा शस्त्रादि हो तो गृहस्वामी को उसी अङ्ग में पीड़ा होती है।

यथा –
तान्यशुचिभाण्डकीलस्तम्भाद्यैः पीडितानि शल्यैश्च ।
गृहभर्तुस्तुत्तुल्ये पीड़ामङ्गे प्रयच्छन्ति ॥

मर्म स्थान का ज्ञान

जिस भूखण्ड में गृह निर्माण करना हो उसमें मर्मस्थानों को जान लेना चाहिए। उन मर्म स्थानों में कोई भी निर्माण कार्य (कील, स्तम्भ आदि में ) न करें। मर्म स्थान को जानने के लिए भूखण्ड के 81 पद (खण्ड) बनाऐं । इसके बाद वास्तु शास्त्र में जिन 6 सूत्रों की कल्पना की गई है, उनका सटीक विन्यास करें। इन 6 सूत्रों का 9 स्थानों पर मिलन होता है, ये मिलन बिन्दु ही अतिमर्म स्थान कहे गये है । इन मर्म स्थानों पर अपवित्र वस्तु, पात्र, कील, स्तम्भ आदि के स्थापित करने से वास्तु पुरुष के जिस अंग को पीड़ा पहुँचती है, उसी अंग में गृहस्वामी को भी पीड़ा होती है।

शास्त्रीय प्रमाणानुसार

रोगाद्वायुं पितृतो हुताशनं शोषसूत्रमपि वितथात् ।
मुख्याद्भृशं जयन्ताच्च भृङ्गमदितेश्च सुग्रीवम् ॥
तत्सम्पाता नव ये तान्यतिमर्माणि सम्प्रदिष्टानि ॥

वास्तुजन्य त्रुटियाँ या अनावश्यक निर्माण कार्य नकारात्मक ऊर्जा को उत्पन्न करता है जिसे वास्तु शास्त्र में “वास्तुदोष” के नाम से जाना जाता है।

वास्तुशास्त्र व वृक्षारोपण –

 वास्तु शास्त्र में विभिन्न पादपों के आरोपण से वास्तु दोषों का परिहार भी बतलाया गया है। अशोक वृक्ष, व तुलसी पादप विभिन्न वास्तु दोषों का शमन करने वाले होते हैं। इसी प्रकार कुछ वृक्ष घर में अशुभ भी माने गये है।

अश्वगन्धश्च कन्दश्च कदली बीजपूरक: ।
गृहे यस्य प्ररोहन्ती स गृही न प्ररोहति ॥

अर्थात् अश्वगन्धा, कन्दी, केला, नींबू आदि वृक्ष जिसके घर में होते है, उस गृहस्वामी की वृद्धि नहीं होती है। अन्य कई प्रकार के कन्टकयुक्त (कांटेदार) वृक्ष भी घर में वास्तु शास्त्र के अनुकूल नहीं मानें गये है।

देवस्थान/मंदिर वास्तु →

जिस प्रकार घर या भवन निर्माण हेतु वास्तु का विचार किया जाता है उसी प्रकार मन्दिर निर्माण में भी वास्तु शास्त्र के विषयों का विचार आवश्यक है। मन्दिर निर्माण में भी मर्मस्थानों का विचार किया जाता है। परिक्रमण मार्ग, गर्भगृह, मन्दिर में उद्यान की अनिवार्यता इत्यादि तथ्यों से युक्त विषयों का समावेश मन्दिर वास्तु शास्त्र के ग्रन्थों में है।

 

निवास योग्य घर की आवश्यकता प्रत्येक मनुष्य को होती है। ग्रह निर्माण भी हर व्यक्ति करता ही है, इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उसे वास्तु शास्त्र के अनुसार ही शुभ व अशुभ का विचार करके घर बनाना चाहिए। भवन निर्माण के लिए भूमि चयन से लेकर के गृहप्रवेश तक की प्रक्रियाओं की शास्त्रीय विधि ग्रन्थों में वर्णित है, अत: तदनुसार ही कार्यारम्भ करना चाहिए। जिससे वास्तु जन्य दोषों से बचते हुए पूर्ण वास्तुशास्त्रानुकूल घर में निवास करते हुए जीवन को प्रसन्न बनाया जा सकता है।


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