भारतीय संस्कृति व परंपराओं में गाय का महत्व

समस्त दुधारू पशुओं में गाय का विशिष्ट महत्व है इसलिए गुणवत्ता की दृष्टि से को दुग्ध को अमृत कहा गया है भारतीय संस्कृति में गाय के विशेष महत्व को ध्यान रखते हुए गाय को को के समान कहा गया है माता के समान कहा गया है गाय के पंचगव्य पदार्थों के महत्व व गुणवत्ता को देखते हुए इन पंचगव्यों को पूजा पद्धतियों में व  धार्मिक अनुष्ठानों में संकल्प आदि कार्यक्रमों में शामिल किया गया है । पंचगव्यों की पवित्रता का वर्णन शास्त्रों में है

यह पंचगव्य पदार्थ है-

गोदुग्ध

गोदधि

गोघृत

गोमूत्र

गोबर

 इसके अतिरिक्त पंचामृत पदार्थों के सेवन की भी परंपरा रही है पंचामृत पदार्थ में

गाय का दूध,

गाय का दही

गाय का घी

शहद   शक्कर आती है

गाय के अत्यधिक महत्व को देखते हुए ही वैदिक सूक्तों में गाय की स्तुति व महत्व का वर्णन प्राप्त होता है। वेद में अनेक बार गाय की महिमा गाई गई है । वैदिक वाङ्मय व  पौराणिक साहित्य में गाय में समस्त देवताओं का वास माना गया है। तृण व सडे गले चारे को चरकर भी अमृत तुल्य दुग्ध को देने वाली गाय को विश्व माता के कहा गया है- गावो विश्वस्य मातर:

भारतीय संस्कृति में गाय के समक्ष अन्य किसी भी धन को वरीयता नहीं दी गई है-

गोभिर्न तुल्यं धनमस्ति किञ्चित्

स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में गोचारण को महत्व दिया इसलिए उनका नाम गोविंद पड़ गया। निंबार्क संप्रदाय के आचार्यों के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण जब गाय चराने के लिए वन में जाते थे तो गौ माता के खुर से उठी हुई धूलि उनके कपोल पर चिपकने से उस प्रकार प्रतीत होती थी मानो कोटि-कोटि चंद्रमाओं को चूर्णीत करके उनके मुखारविंद पर चिपका दिया गया हो। इस प्रकार गौ माता की स्तुति जिस देश में की गई हो आज उन गौ माताओं की स्थिति अत्यंत दयनीय व दुखदाई हो गई है।

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