भारतीयज्ञानपरम्परा व संस्कृति में जलसंरक्षण की चेतना

 

 जल एक सीमित संसाधन है जो मानव के द्वारा बनाया नहीं जा सकता। जल के बिना जीवन की संकल्पना सम्भव नहीं है। सृष्टि की रचना में प्रयुक्त प्रथम तत्त्व जल ही था। भारतीय ज्ञान परम्परा व संस्कृति में जल को वरुण देवता का शरीर माना गया है। वेदों में जल को केवल भौतिक पदार्थ न मानकर देवता के रूप में प्रतिष्ठित माना गया है। वेद व वैदिकवाङ्मय के अतिरिक्त  भी सम्पूर्ण संस्कृत वाङ्मय में  जल की महिमा के साथ-साथ जल के प्रति देवत्व दृष्टि रखी गई है। यही दृष्टि व विचार भारतीय संस्कृति, संस्कार व परम्पराओं में भी घुल मिल गया। भारतीय बच्चों को जल में मूत्र पुरीष आदि नहीं त्यागने की बात परिवार के वृद्ध जन सिखाते आये हैं। वर्तमान में संस्कृति व परम्पराओं में साङ्कर्य आ जाने व पाश्चात्य संस्कृति के दुष्प्रभाव के कारण जल के सहित पञ्चमहाभूत पदार्थों को दूषित करना व जल का अपव्यय करना हमारी दिनचर्या का भाग बन गया है। ऐसी स्थिति में जल स्रोत क्रमशः नदी, सरोवर, वापी, कूप व बोतल में संकुचित हो रहे हैं तथा पेयजल के संकट उत्पन्न हो रहे हैं। जल संरक्षण हेतु कार्य कर रही अनेक सरकारी योजनायें, आयोग, संस्थायें, NGO आदि  भी खानापूर्ति ही प्रतीत हो रहे हैं। वर्तमान पीढ़ी में जल संरक्षण के संस्कार मानो समाप्त हो चुके हैं। अनेक परियोजनाओं व भाषणों के बाद भी हम वर्तमान पीढ़ी को जल संरक्षण के प्रति सजग व जिम्मेदार नागरिक नहीं बना पा रहें है। ऐसी अवस्था में जल संरक्षण हेतु अचूक उपाय है भारतीय शास्त्र , संस्कृति व परम्परायें, जिनके अनुसार जल के प्रति देवत्व बुद्धि व श्रद्धा भाव रखते हुए संस्कृति के अनुकूल आचरण से  जल संरक्षण संभव है।


Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

en_USEnglish